शुक्रवार, 15 जनवरी 2010

जाना तो नहीं चाहता लेकिन फिर भी चला जा रहा हूँ...

आधी रात के घने कोहरे और ठिठुरन भरे माहौल में  भागती ट्रेन की सीटी और इसके पहियों की आवाज़ सन्नाटे को चीरते हुए पटरी के आस-पास बने घरों से टकरा रही थी.इस वक़्त ट्रेन की आवाज़ सुनकर लग रहा था मानो,  कड़कड़ाती ठण्ड ने उसके दांत जमाँ दिए हों और वो गर्माहट पाने के लिए गुहार लगा रही हो. अभी थोड़ी देर पहले ही मैं पटरी के पास वाले घर पहुंचा था और इस ख्याल में डूबा था कि व्यर्थ अहंकार, अभिमान और नासमझी के बादलों से होने वाली हलकी-फुल्की बूंदा-बंदी जब तेज़ बारिश की शक्ल अख्तियार करती है तो प्यार और अपनेपन की ज़मीन में पनपने वाले रिश्ते उसमें या तो डूब जाते हैं या फिर बह जाते हैं. दोनों ही स्थिति में नुकसान रिश्तों का होता है और हर नुकसान की भरपाई हो ये मुमकिन भी नहीं है.

स्तब्ध और आंसुविहीन, इससे लाचार हालत और क्या हो सकती है? कुछ छः महीने ही हुए थे उससे  मिले हुए और मिलते वक़्त आप कभी बिछड़ने के बारे में नहीं सोचते. वैसे आजतक ये निश्चित नहीं हो पाया कि हमारे रिश्ते की पहल किसने की? मैंने या उसने? लेकिन ये ज़रूर है कि अलग होने का निर्णय मेरा था. दिन, हफ्ते, महीने छोटी-छोटी नोक-झोंक तो होती थीं लेकिन बात यहाँ तक आ पहुंचेगी सोचा नहीं था. "हम दोनों बहुत अलग हैं" कई बार ये सुन चुका था उससे. लेकिन क्या दुनिया मैं हम ही अलग हैं? "मैं ऐसी ही हूँ" ये भी कई बार सुना था और इसके बाद ये भी सुना कि जब तुम्हे मालूम था कि "मैं ऐसी हूँ तो फिर ज़रूरत क्या थी साथ होने की और तुम्हें ये आज ही दिख रहा है कि मैं ऐसी हूँ पहले नहीं दिखा". खैर, आप इंसान से जीत सकते हैं उसके अहंकार से नहीं. वैसे रिश्तों में सही-गलत, हार-जीत जैसा कुछ नहीं होता, जो होता है वो है समझ. मैं उसे समझ तो गया था लेकिन इस उम्मीद के साथ कि शायद उसमें कोई सुधार आएगा. वो खुद में सुधार करने  तैयार नहीं थी. जब आप किसी से मिलते हैं तो मिलते ही साथ उससे ऐसा कुछ नहीं कहते कि उसे कुछ बुरा लगे, वरना आपकी अगली मुलाकात उससे होगी या नहीं, ये पक्का नहीं होता. कुछ लोग खुद से बहुत प्यार करते हैं, खुद की हर चीज़ उन्हें बहुत प्यारी होती है. हिटलर को भी अपनी छोटी सी मूंछ से बड़ा प्यार रहा होगा लेकिन किसी ने उसे ये बताने की हिम्मत नहीं की कि वो मूंछ बहुत अजीब लगती थी, अपनी जान किसे प्यारी नहीं होती? बहुत कम लोग जानते हैं कि हिटलर एक बहुत अच्छा "चित्रकार" भी  था और paint brush  बहुत ख़ूबसूरती से use  करना जानता था. खुद के वजूद को कौन नहीं चाहता? पर ये चाहत, उसे चाहने के आड़े आने लगे तो क्या किया जाये? पहले तो आप उसे नज़रंदाज़ करेंगे, फिर अगर कुछ ज्यादा ही महसूस होने लगे तो सुधारने की कोशिश करेंगे और जब सब तरह से विफल हो जाएँ तो हाथ खड़े कर देंगे. लोगों को कहते सुना है  "मैं आपके दिल में रहना चाहता हूँ", शायद दिल भी एक घर होता है. आप किस घर में जिंदगी भर रहना चाहेंगे ? एक ऐसा घर जिसकी नीवं कमज़ोर हो, जिसके ज़मीने पत्थर हिले हुए हों या फिर एक ऐसा घर जिसकी नीवं को कोई सुनामी, कटरीना, डैज़ी और भूकंप हिला न सके? नीवं मज़बूत की जा सकती है, जब घर बनना शुरू हुआ हो और मैं ये भी सोच रहा हूँ कि एक कोशिश अभी भी की जा सकती है. जबकि सारे प्रयत्न बेकार जा चुके हैं, आखिरी वाला भी. पूरी रात आँखों में कट गयी और सुबह ने खिड़की पर दस्तक दी. मेरे यहाँ से चलने का वक़्त भी हो गया. मैं जा रहा हूँ, मैंने किसी के आवाज़ देने का इंतज़ार भी नहीं किया और किसी ने मुझे आवाज़ भी नहीं दी. जाना तो नहीं चाहता लेकिन फिर भी चला जा रहा हूँ...

4 टिप्‍पणियां:

Udan Tashtari ने कहा…

भावपूर्ण!!

रामकृष्ण गौतम ने कहा…

Badhia...

shama ने कहा…

Aisee ghatnayen,aise samvaad, halaat aaye din apne atraaf me dekhte hain..aapne behad khoobsoorte se in bhavon ko pesh kiya hai!

बेनामी ने कहा…

very beautifully written but you know on 1 hand u say that u understood the person and on the other hand u say ke tumhe laga ke bandi badal jayegi..taali kabhi ek haath se nahi bajti badalna sabko padta hai..what matters is the timing...tc,,may god bless you..