शनिवार, 26 दिसंबर 2009

तुम्हारे नाम

तुम, 

"कभी-कभी आपको वो भी करना पड़ता है, जो आपने सोचा न हो." अपनी बात करूँ तो ऐसा ही लग रहा है अभी कि जो कुछ अब मैं लिखने वाला हूँ, कभी सोचा नहीं था कि इस तरह से भी लिखना पड़ सकता है. जाने क्यों मुझे ऐसा लगता है कि अपनी परेशानियाँ यहाँ लिखते वक़्त कुछ हल्का सा लगने लगता है. ये  गलतफहमी भी हो सकती है लेकिन लगता तो कुछ ऐसा ही है. हाड़-मांस के ढाँचे में रहते हुए ये भी लगने लगा है कि अपनी परेशानी को शाब्दिक रूप देकर, शायद उसे आसानी से सुलझाया जा सकता है. अब ये तो आगे ही पता चलेगा कि ये दुबारा उलझने के सुलझेगी या फिर और उलझती जाएगी.
मैंने ऐसा कहीं सुना था कि बातचीत से दो देशों के बीच के झगड़े, मसले और मुद्दे सुलझ जाते हैं. पर मेरा मसला बातचीत से कभी सुलझता ही नहीं है. बातचीत, वो क्या होती है...जब भी होती है सिर्फ बहस ही होती है. लेकिन इतना ज़रूर है कि शुरुआत बातचीत से ही होती है. मसला भी कोई बड़ा मसला नहीं है, लेकिन इस मसले की अहमियत बहुत है. मसला यही है कि " जब भी तुम मुझसे दूर जाते हो, अपने ज़हन से मुझे निकाल कर कहीं बाहर फेंक जाते हो." आज तक तो मुझे ऐसा नहीं लगा कि मैं हमारे रिश्ते को ढो रहा हूँ पर जाने क्यों मुझसे दूर जाने के बाद तुम माथे का पसीना पोछते हुए नज़र आते हो. छोटे शहर के लोगों में attitude नहीं होता, वो Emotional fool होते हैं. बेहद प्यार करने और बेहिसाब नफरत करने की quality सिर्फ छोटे शहर के लोगों में ही होती है और इसी वजह से वो अपने रिश्तों में या तो बहुत सफल होते हैं या फिर बहुत असफल. रिश्तों का ताना-बाना बुनते वक़्त वो ये भूल जाते हैं कि वो "बुनकर" या "जुलाहा" नहीं हैं, जो कहीं भूल-चूक हो जाने पर बिना गठान बांधे दुबारा रिश्तों को बुन सकते हैं. कहीं गठान न बांधनी पड़े इसके लिए भी मैं हमेशा तैयार रहता था, Adjustment  क्या होता है ये उनसे पूछो जो थोड़े से adjustment में अपनी पूरी जिंदगी साथ जीने के लिए तैयार रहते हैं पर उन्हें ये उनके नसीब में Adjustment जैसी कोई चीज़ नहीं होती. अगर कोई कहता है कि Adjustment जैसी कोई भी चीज़ रिश्तों में नहीं होती तो शायद उन्हें ये नहीं मालूम है कि जब भी दुनिया में दो अलग-अलग चीज़ें मिलती हैं तो उनमें Adjustment होता है. भौतिकी के समायोजन का सिद्धांत मानव जीवन के रिश्तों पर भी लागू होता है. पर इसका एक लेवल होता है, ये सिद्धांत इतना भी न लागू होने लगे कि Relation  किसी Technical machine जैसा लगने लगे. कभी गौर किया है तुमने, जब भी हम करीब होते हैं तो Communication का एक तार सा जुड़ा होता है. जो दूर जाते ही टूट जाता है और दूर जाने पर सबसे ज्यादा जिस चीज़ का ज़रूरत होती है वो कम हो जाये तो चलता है लेकिन बिलकुल ख़त्म हो जाये तो तकलीफ होती है. दिन में तुम अपने दोस्तों के साथ हो, शाम को परिवार  के साथ, रात में फ़ोन पर या फिर थक जाने के बाद नींद की आगोश में. फिर मैं कहाँ हूँ? ठीक है एक-दो दिन चलाया जा सकता है. फिर जब भी बात हो तो ऐसी क्यों कि जैसे मैं तुम्हारे लिए अनजान हूँ? प्यार नाम का कुछ तो है हमारे बीच, पर वो तो नदारद हो जाते हैं तुम्हारे जाते ही. एक सच और है जो तुम्हे भी मालूम है कि तुम बहुत ज़िद्दी हो. अब चाहें वो ज़िद सही बात को न मानने की हो या फिर गलत बात मनवाने की. मुझे उम्मीद है कि तुम्हे मेरी बातें समझ आ गयी होंगी.


मैं 

सोमवार, 14 दिसंबर 2009

ईमेल

सुबह -सुबह एक ईमेल की दस्तक पर, जब इनबॉक्स खोला,
तो देखा, बहुत सारे स्पाम भी आये हैं,
सब्जेक्ट से आकर्षक थे सारे,
जो पहले भी थे आये,
हेडर देखा फुटर देखा,
पूरा मेल पढ़ कर देखा,
तो पता चला,
किसी के बैंक अकाउंट में, बहुत सारा पैसा था,
जिसे हांसिल करने के लिए मेरा सहारा चाहिए,
रकम तो इतनी थी कि जिसे आज तक मैंने सुना न था,
अचानक से याद आया कि,
अखबार में कुछ दिनों पहले,
ऐसे ही किसी ईमेल फ्रौड की खबर आई थी,
फिर भी लगा कि हर बार फ्रौड थोड़े ही होता है,
स्टार का टैग लगा कर अकाउंट साईन आउट कर दिया,
जब भी साईन इन करता,
तो बस उस मेल पर ही नज़र जाती,
दो हफ्ते बीत गए,
सोचा उस मेल का रेप्लाए किया जाये,
लेकिन उस दिन अखबार में फिर एक खबर आ गयी,
"ईमेल के ज़रिये फ्रौड करने वाला गिरफ्तार"
फ्रौड है शायद, फ्रौड ही होगा,
इस तरह इन्टरनेट पर अगर अमीर बनने की तरकीब होती,
तो भिखारी कटोरे की जगह, लैपटॉप लेकर घूमते.

मंगलवार, 17 नवंबर 2009

मिज़ाज़

पिछले दो दिनों से, जब से मैं शहर लौट कर आया हूँ, बहुत कुछ बदल गया है. मौसम का मिज़ाज़ भी उनमें से एक है और इस बदले हुए मिज़ाज़ की वजह से ही तो मैं इतनी रात गए ऑफिस में बैठे ब्लॉग लिख रहा हूँ. अपने बहुत ही ख़ास दोस्त के साथ मूवी देखने गया था "अजब प्रेम की गज़ब कहानी". हालाँकि इससे पहले भी मैं भी ये मूवी देख चुका हूँ. पर आज मेरे दोस्त के कैट के इम्तिहान ख़त्म हुए तो उसके साथ जाना पड़ गया. मना करने का सवाल ही नहीं उठता, आखिर ख़ास जो ठहरा. मूवी देखते हुए उसने भी आज की पीढ़ी के बदले हुए मिजाज़ की बात कही. उसने कहा कि आज-कल की फिल्म्स में कहानी थोड़ी बदल गयी है, हीरो-हीरोइन अब एक-दूसरे प्यार नहीं करते. फिल्म की कहानी में शुरुआत से लेकर, आखिर के थोड़े पहले तक वो किसी और से प्यार करते हैं और फिल्म के ख़त्म होते-होते उन्हें एक-दूसरे से प्यार हो जाता है. आज की पीढ़ी का मिजाज़ भी कुछ ऐसा ही हो गया है शायद, वो किसी को प्यार करते-करते किसी और से प्यार कर बैठते हैं और फिर कहानी पूरी तरह से फ़िल्मी बन जाती है. फर्क इतना होता है कि फिल्म में कौन हीरो है और कौन हीरोइन, ये सबको मालूम होता है. तीन घंटे की पटकथा का सुखान्त हो ही जाता है. पर जिंदगी की पटकथा में कौन क्या है, ये तो खुद जिंदगी भी नहीं जानती. हाँ, एक बात ज़रूर है कि इंसान अपनी चाल से चलता रहता है. इसी उम्मीद के साथ कि शायद आगे कुछ अच्छा ही होगा. पर जिसने अपनी चाल पर चलते-चलते किसी के साथ अच्छा न किया हो तो क्या उसे अच्छे की उम्मीद करनी चाहिए? सच तो ये भी है कि जो अच्छा करता है वो भी अच्छे की उम्मीद न ही करे तो बेहतर है. कई बार सारी चीज़ें, सारी बातें अपनी जगह पर एकदम सटीक होती हैं लेकिन सबके लिए सटीक हों ये ज़रूरी नहीं है. किसी को ये लगता है कि नवम्बर में होने वाली बारिश महंगाई और सूखे से राहत देगी तो किसी को लगता है कि मौसम की चाल डगमगा गयी है. किसी को फिक्र है तो कोई खौफज़दा है. किसी को लगता है कि प्यार के लिए दो पल ही काफी हैं, बाकी वक़्त दूसरे काम भी ज़रूरी हैं तो किसी को लगता है कि प्यार के लिए 24 घंटे भी कम हैं. किसी को लगता ही कि खुद के प्रति लापरवाह रवैया आपकी पहिचान मिटा देगा तो किसी को लगता है कि दूसरों का उसके प्रति लापरवाह रवैया उसकी पहिचान मिटा देगा. कोई स्वार्थी है, कोई कम स्वार्थी और कोई ज्यादा स्वार्थी हैं. कोई खुद के लिए है, कोई अपने परिवार के लिए. पर सब स्वार्थी हैं. सब को कुछ न कुछ चाहिए. कुछ को सब कुछ मिल जाता है तो किसी को कुछ भी नहीं. ऐसा भी कई बार होता है कि आपके हाथ की चीज़ किसी और के हाथ में चली जाये या कोई और उसे छीन ले. थोड़े देर पहले आप मुस्कुरा रहे होते हैं तो थोड़ी देर बाद ग़मगीन हो जाते हैं. मिजाज़ किसी का भी हो, बदलने में वक़्त नहीं लगता. मौसम तो हमें सिखाता है कि बदलती हुई चीज़ों का सामना हम कैसे कर सकते हैं, हाँ! ये अलग बात है कि कई बार हम बारिश में ज्यादा भीग जाते हैं तो कभी कम. लेकिन भीगते ज़रूर हैं. मैं भी तो बदले हुए मिज़ाज़ की बदौलत ही तो  यहाँ बैठा हुआ हूँ. मेरे पास दो ही विकल्प हैं, या तो बारिश में बाहर निकल जाऊं या फिर बारिश के बंद होने का इंतज़ार करूँ. ये भी मिज़ाज़ की बात है.

मंगलवार, 3 नवंबर 2009

इस्तीफा

Dear Sir,
पिछले कई महीनों में मैंने आपको अपनी व्यवसायिक समस्याएं व्यक्तिगत तौर पर बताने के बाद ही ई-मेल का सहारा लिया था. पर अब तक किसी तरह का ठोस समाधान मुझे नहीं दिया गया है. मौखिक तौर पर जो भी बातें अब तक सामने आयीं, जैसे कि - ऊपर वाले कुछ कर रहे हैं, ऊपर बात हुई है उन्होंने कहा है कि कुछ करते हैं. इत्यादि.  पर अब तक क्या हुआ है, कुछ भी जानकारी नहीं दी गयी है.  कुछ चीज़ें जो मैंने आपसे मांगी हैं, वो increment, appraisal, promotion और bonus हैं. कोई भी मेहनती, ईमानदार एवं कर्तव्यनिष्ठ कर्मचारी अपनी कंपनी से शायद इन्ही चीज़ों की मांग करता है. मैं ये पूछते-पूछते हताश हो चुका हूँ कि क्या कंपनी मेरे  लिए कुछ कर रही है, हाँ या न? कोई जवाब नहीं मिला है. और जवाब न मिलने से मनोबल लगातार गिर रहा है और मानसिक परेशानी भी बढ़ रही है. मानसिक तनाव के चलते मेरा व्यक्तिगत जीवन भी प्रभावित हो रहा है. इस परेशानी को बर्दाश्त करने की मुझमें हिम्मत बहुत है लेकिन अब मैं इसे और बर्दाश्त नहीं करना चाहता. अब मुझे ऐसा लगने लगा है कि मैं शुरू से लेकर अभी तक अपने कार्यों के अतिरिक्त जो कार्य (Company name) के लिए कर चुका हूँ, शायद व्यर्थ थे. चाहे वो कंपनी के लिए working hours से ज्यादा 12-14 hours काम करना हो या फिर अवकाश के दिन भी अपनी सेवाएं देने में पीछे न हटना.  कंपनी का मेरे प्रति लापरवाह रवैया होने से मेरे अन्दर का धैर्य जवाब दे चुका है और इसी धैर्य के समाप्त होने की वजह से मैं (Company name) को अपनी कर्त्व्यनिष्ठाता और कार्यों का मालिक होने के अधिकार से वंचित करता हूँ. इस वचन को संपूर्ण मानते हुए मेरे पद से मेरे इस्तीफे को मंज़ूर किया जाये. चूँकि कंपनी मेरे प्रति लापरवाह है किन्तु मुझमें थोड़ा विवेक बाकी है, अतः कंपनी को अगले सात दिनों तक मैं अपनी आपातकालीन सेवा दूंगा जिसमें कंपनी के मुझसे जुड़े हुए कार्यों का नुकसान न हो. ज्ञात हो मेरे इस कठोर कदम के लिए (Company name) का मेरे प्रति लापरवाह रवैया उत्तरदायी है जिसका ज़िक्र मैं अभी तथा पूर्व की सूचनाओं में कर चुका हूँ. मुझे उम्मीद है कि कंपनी मेरा अनुभव प्रमाण पत्र, चारित्रिक प्रमाण पत्र, वेतनमान और देयक देने में लापरवाही नहीं बरतेगी.
Regards
एक कर्तव्यनिष्ठ और मेहनती कर्मचारी.

शुक्रवार, 23 अक्तूबर 2009

समझौता एक्सप्रेस!!!

हँसी आ रही है, बहुत जोर से. और क्यों न आये? काम ही ऐसा करने जा रहा हूँ. कैसा काम है, बाद में पता चल जायेगा आपको. पर पहले ये बता दूँ कि जिंदगी में कभी-कभी ऐसा वक़्त आता है जब आपको लगने लगता है कि अब समझौता करके नहीं चला जा सकता. अब चाहे बात नौकरी की हो या फिर रिश्तों की. समझौतों से लदी ज्यादातर चीज़ें बोझ बन जाता हैं. कुछ महीनों से इस समझौते की उहा-पोहं में खुद को खोता सा जा रहा था. इतनी बड़ी कीमत,  वो भी समझौता एक्सप्रेस चलाने के लिए. न, नहीं, नो, नेवर. आप एक अभिनेता हो सकते हैं, एक नेता हो सकते हैं, एक उद्योगपति हो सकते हैं, एक बड़े पद पर अधिकारी हो सकते हैं. लेकिन इन सबकी कीमत आपको खुद की पहचान खोकर चुकानी पड़े तो, हो सकता है आप सहमत भी हो जाएँ अगर कीमत अच्छी मिले. सच बताऊँ, कुछ दिन बाद आप भी ऊब जायेंगे जब महसूस होगा कि आप, आप नहीं रह गए हैं. रह गये हैं तो एक चलते-फिरते आदमी जो अपनी संस्था के निर्देशों का पालन, मुंह पर ऊँगली रखकर करता है या फिर आपको काम तब भी करना है जब करने का मन न हो. काम करने का मन दो ही स्तिथि में नहीं होता, एक जब आप खुद के काम से संतुष्ट न हो, दूसरा जब आप अपनी संस्था या वरिष्ठ अधिकारी के काम करने से संतुष्ट न हो. तीसरी स्थिति भी हो सकती है जब पहली और दूसरी एक साथ सामने आ जाएँ. हँसी अभी भी आ रही है, काम ही ऐसा करने जा रहा हूँ. समझौतों से मुक्त होने का काम. मतलब समझौता एक्सप्रेस अब जाकर यार्ड में खड़ी हो जायेगी और मैं स्वतंत्रता से खुले आसमान में सांस ले पाउँगा.

सोमवार, 21 सितंबर 2009

ऊब

आजकल लिखने का मन नहीं करता, और अगर मन होता भी है तो लिखने में वक़्त नहीं दे पाता. पूरी कोशिश कर रहा हूँ कि कुछ अच्छा लिखूं. पर अच्छा क्या होता है? क्या अच्छा लिखने से कुछ अच्छा हो सकता है? मतलब अगर मैं कुछ लिख रहा हूँ और आप उसे पढ़ रहे हैं तो क्या उस लेख पर टिप्पणी करने के बाद आप फुर्सत हो जाते हैं अपने कर्तव्य से ? खैर मेरी छोड़िये, मैं तो जो लिखता हूँ बकवास ही लिखता हूँ पर आप जो अखबार पढ़ते हैं, कुछ अच्छे न्यूज़ चैनल देखते हैं. क्या उनमें भी सबकुछ बकवास ही होता है? मेरे लिए कुछ ख़बरों को छोड़कर बाकी सबकुछ ठीक-ठाक होता है अखबार और न्यूज़ चैनल में. नेता अपना काम कर रहे हैं (मतलब वो खबर बनने की पूरी कोशिश करते हैं.) और पत्रकार अपना काम करते हैं (कुछ खबर लाते हैं, कुछ खबर दबा जाते हैं , कुछ खबर बनाते हैं और  कुछ खबर बनने ही नहीं देते.). बाकी बची हमारी आम जनता "the mango people", इनका काम सबसे ज्यादा कठिन होता है. पांच साल में एक बार नेता चुन लिया और अपने काम से लग गए. बहुत काम होता है आम जनता के पास, जैसे सुबह सोकर उठाना, अखबार खरीद कर पढना और चाय की चुस्कियां लेते हुए कहना...ये नेता लोग एक दिन देश को खा जायेंगे और ये अखबार वाले कुछ भी छापते रहते हैं "लड़के ने कुतिया का बलात्कार किया". कुछ नहीं हो सकता इस देश का.  थोडी देर में  नौकरी पर जाने का वक़्त हो जायेगा, तब नहा-धोकर, नाश्ता करके, टिफिन लेकर ये कहते हुए निकलेंगे...Oh God! देर हो रही है. जल्दी से अपना two wheeler स्टार्ट करके, बच्चों को टा टा कहेंगे और अगर बीवी होगी तो एक smile देकर फटाक से निकल जायेंगे. (ये वाली कंडिशन्स अलग हो सकती हैं, नयी बीवी और पुरानी बीवी को response करने में कुछ फर्क हो सकता है.) खैर अपनी गड्डी लेकर जब mango people आगे बढ़ते हैं तो बंद रेलवे फाटक को खुद झुककर और गाड़ी को तिरछा करके निकाल लेते हैं. थोड़ी आगे के चौराहे पर एक यातायात पुलिसकर्मी गाड़ी रोक कर ड्राइविंग लाईसेन्स की मांग करता है तब मालूम पड़ता है कि वो जल्दी-जल्दी में घर पर ही छूट गया. फिर क्या है, एक पचास का नोट देकर चालान से मुक्ति पा लेते हैं. अरे! पान थूकने का सीन तो रह ही गया, पचाक! ये लो ये भी पूरा हो गया. दफ्तर पहुंचकर कुछ पुराने काम पेंडिंग पड़े हुए हैं जिनका खर्चा बड़े साब के पास पहुँच गया है, तो लगे हाथ काम पूरा करके अपना हिस्सा लेकर शाम की सब्जी-भाजी का इंतजाम कर लिया. शाम को घर लौटते वक़्त, रास्ते में लघुशंका लग आई, बस गाड़ी किनारे लगाकर कहीं भी खड़े हो गए. न तो खुद को रोक सकते हैं और न ही कोई रोकने-टोकने वाला है. थोड़ी देर में घर पहुंचकर बीवी को टेलिविज़न पर प्राइम टाइम शो के साथ चिपके हुए देखते हैं. जब खाना खाने का मन किया तब बीवी डिनर टेबल सजाकर खाना खिला कर, बच्चों को सुलाकर कहेगी... सुनोजी! शक्कर-दाल-रसोई गैस सब महंगे हो गए हैं, इस बार घर के बजट के लिए थोड़े एक्स्ट्रा पैसे चाहिए होंगे. थोड़ी देर यहाँ-वहां कि बातें करते हुए रूम का लाइट ऑफ़ हो जायेगा. ये एक कॉमन लाइफ है, कॉमन मैन "द मैंगो पीपल" की. जनाब, जब खुद इंसान अपने घर की ज़िम्मेदारी सीधे तरीके से नहीं निभा पाता तो वो दूसरो से क्यों उम्मीद करता है कि वो देश की ज़िम्मेदारी सीधे ढंग से निभाएं? जब घर चलाने के लिए काला-पीला करना पड़ता है तो देश चलाने के लिए काला-पीला करने वालों से परहेज़ क्यों? एक फिल्म आयी थी " अ वेडनेसडे" जिसमें नसीरुद्दीन साहब का एक संवाद था, "आम आदमी conditions से adjust कर लेते हैं, उससे लड़ने की कोशिश नहीं करते, मुझसे बर्दाश्त नहीं हुआ तो मैं निकल गया लड़ने के लिए."

सच बताऊँ, तो मैं भी ऊब चुका हूँ adjust करते हुए और दूसरों को adjustment करते हुए देखकर और ये ऊब बहुत जल्दी ख़त्म होने वाली है.

रविवार, 9 अगस्त 2009

लव आज-कल - नहीं बदली तो इंसान की मैन्फेक्चारिंग

"वक्त बदला, ज़रूरतें बदलीं लेकिन नहीं बदली तो इंसान की मैन्फेक्चारिंग। दिल आज भी वैसे ही धड़कता है जैसा आज से कई सालों पहले लैला-मजनू, हीर-रांझा, सोनी-माहि-वाल के समय में धड़कता था। लव, लव ही रहेगा; चाहे आज हो या कल। "

लव-आजकल देखने के बाद यही ख्याल आया। खैर, जब आप इस फ़िल्म को देखते हैं तो आपको खासी मशक्कत करनी पड़ती है इसे समझने के लिए। क्योंकि फ़िल्म का डायरेक्शन इतना उम्दा नहीं है जितनी कि इम्तियाज़ अली से उम्मीद थी। जब वी मेट और लव आजकल, कहानी, म्यूजिक, डायरेक्शन और एक्टिंग इन सब मामलों में बहुत अलग हैं। हालाँकि दोनों फिल्म्स अपनी जगह पर हैं लेकिन दोनों के डायरेक्टर एक होने कि वजह से तुलना करना वाजिब है। क्योंकि जब आपका पहला मैच धमाकेदार हो तो दूसरे मैच से लोगों की उम्मीद बढ़ जाती हैं। वैसे ये ज़रूरी है कि जब आप इस फ़िल्म को देख रहे हो, तो पूरा ध्यान फ़िल्म पर होना बहुत ज़रूरी है। फ़िल्म का पहला ट्रैक "ये दूरियां" समझने के लिए आपको पूरी फ़िल्म देखनी पड़ेगी, बिलाशक गाना बहुत अच्छा है। इसके अलावा फ़िल्म के बाकी गाने ट्विस्ट, आहूँ-आहूँ, मैं क्या हूँ, थोड़ा-थोड़ा प्यार, चोर बज़ारी, आज दिन चढीया भी आपको पसंद आयेंगे। आज दिन चढीया देखते और सुनते वक्त राहत साहब की आवाज़ आपके रोंगटे खड़े कर सकती है। फ़िल्म का आखिरी गाना, जो आहूँ-आहूँ है उसे देखने के लिए आप थिएटर में ज़रूर रुकेंगे। सैफ अली खान का डांस ट्विस्ट में ट्विस्ट नहीं डाल पाया है साथ ही सैफ ने एक्टिंग करने की पूरी कोशिश की है। दीपिका की एक्टिंग आपको पसंद आ सकती है लेकिन हरलीन का किरदार निभाने वाली गिसेल्ले मोंटिरो की खूबसूरती ही कमाल की है बाकी एक्टिंग करने के लिए उन्हें काफ़ी मेहनत की ज़रूरत है। सबको एक तरफ़ कर दिया जाए तो ऋषि कपूर साहब की एक्टिंग ज़ोरदार है। ओवर ऑल दो पीढ़ियों के बीच प्यार को लेकर दिखाई गई सोच को बखूबी परदे पर उतारने की ये कोशिश ज़ाया नहीं है, फ़िल्म आपको पसंद आएगी और आपके टिकट के लिए किया हुआ खर्च आपको फालतू नहीं लगेगा।

मंगलवार, 28 जुलाई 2009

सच में तू बड़ा हो गया है...पहली किश्त

मैं ऑफिस जा रहा हूँ कुछ लाना है क्या? मैंने माँ से पूछा।माँ ने कहा " हाँ, नानी की दवाई और नाना-नानी के लिए टोस्ट और बिस्कुट, चाय के साथ लेने के लिए। गाँव भेजना है। मैंने हाँ में सर हिला दिया। माँ ने पूछा "पैसे दूँ?" मैंने कहा "हैं मेरे पास।" माँ मुस्कुरा दीं और बोली "बड़ा हो गया है तू" मैं कुछ नहीं बोला, मैं भी मुस्कुराया और बाइक उठाकर चल दिया। माँ के कहे हुए लफ्ज़ कान की दीवारों से टकराकर दिमाग के उसे कोने से जाकर टकरा गए, जहाँ कुछ यादें एक-दूसरे की गोद में सिमटी हुई थीं। उसी में से एक याद उठ खड़ी हुई और उसने आंखों की तरफ़ तेज़ी से दौड़ना शुरू किया, मैंने बाइक की रफ़्तार कम कर ली। अब तक वो याद मेरी आंखों में रफ़्तार पकड़ चुकी थी, और जहाँ से वो शुरू हुई वो दिन था 8 दिसम्बर 2006, सुबह-सुबह मेरे बिस्तर के बाजू में रखा मेरा मोबाईल बजा, पिताजी का कॉल था, कह रहे थे कि "भैया" का कॉल आया था, इस नम्बर से (उन्होंने मुझे नम्बर दिया।) भैया कह रहा था कि काम कुछ अच्छा सा नहीं लग पाया है, फिर भी कोशिश में हूँ कि अच्छा काम लग जाए। जबलपुर आने का फिलहाल कोई मन नहीं है। तुम इस नम्बर का पता करो, कहाँ का है? उसको लेकर आओ, तुम्हारे ताऊ जी कह रहे थे कि वो भी हाथ बटायेंगे सब ठीक करने में। पापा के पास भैया का ये पहला कॉल था उनके जबलपुर से जाने के बाद. मैं बिना देर किए बिस्तर से उठा, माँ को पूरी बात बताई। पापा का बताया हुआ नम्बर पता किया तो वो नागपुर का निकला, आज मैं सतना जाने वाला थे एक NGO के साथ ठेकेदारी का काम सँभालने, उसी के ज़रिये मैं अपने भाई की मदद करना चाहता था। आज जाने के लिए आठ बैग और सूटकेस के साथ पूरी तैयारी थी मेरी। माँ ने एक बैग में दो जोड़ी कपडों के साथ एक चादर रख दिया मेरे ओढ़ने के लिए। मैंने भैया के कुछ पोस्टकार्ड साइज़ फोटो रख लिए। मेन रोड पर खड़े होकर बस का इंतज़ार करने लगा, थोड़ी देर में नागपुर जाने वाली बस आ गई, मैं उस पर सवार हो गया। मैं निकल पड़ा था उस सफर में जहाँ मुझे अपने बड़े भाई तक पहुंचना था, मेरा सगा भाई जो मेरे लिए मेरा दोस्त, मेरा हमराज़, मेरा भाई सब कुछ... वो लगभग आठ महीने से लापता था, आखिरी बार मुझे मेरे दैनिक जागरण वाले ऑफिस में मिला था। उस दिन वो काफ़ी परेशान था, जब वो ऑफिस आया तो बोला, "अपनी घड़ी दे, मेरे जूते तू पहन ले और अपने जूते दे, साथ में ये मोबाईल रख बैट्री ख़त्म हो गई है इसकी। मुझे शहर का मैप बनाना है, प्रोजेक्ट के लिए। " मैंने उससे कहा, कि लूना ले जाए साथ में।" तो कहने लगा कि काम में मुश्किल होगी। मैंने कहा ठीक है, वो चला गया। रात को मैं घर पहुँचा, तब तक वो नहीं आया था। देर रात तक नहीं आया, सुबह भी नहीं आया, उसका कोई कॉल भी नहीं आया। रात से मैं और मेरी माँ परेशां थे, पिताजी उस वक्त शहर के बाहर पोस्टिंग पर थे हलाँकि उन्हें भी बता दिया था इस बारे में। दोपहर में पुलिस थाना जाकर भैया के गुम होने की रिपोर्ट दर्ज करायी। उसके बाद से आज तक बस उनके आने का इंतज़ार ही कर रहे थे। मेरे भाईसाहब की किस्मत बहुत अच्छी नहीं थी, क्योंकि उन्होंने जितने भी काम किए उनमे खूब मेहनत की पर फायेदे के अलावा सब कुछ हुआ। मशरूम प्रोडक्शन, अगरबत्ती प्रोडक्शन, साइबर कैफे किसी में भी फायदा नहीं हो पाया। उल्टा क़र्ज़ में डूबते गए और क़र्ज़ लौटाया भी दस टके के ब्याज पर, अब तक वो दूसरो का पैसा दुगना कर चुके थे। फिर भी सूदखोर उनका पीछा नहीं छोड़ रहे थे, बात अब घर तक आने लगी थी। भैया काफ़ी हताश हो चुके थे। शायद इसलिए घर छोड़ दिया, हम लोगों को परेशानी न हो इसलिए आज तक घर से कोई कांटेक्ट भी नहीं किया। दोपहर से चला शाम को नागपुर पहुँचा, वहां पहुंचकर उसी नंबर पर फ़ोन किया, उसने बताया कि ये गणेश पेठ एरिया का नम्बर है। मैं भैया की फोटो लेकर उस जगह पहुँचा और लोगों को दिखाकर पूछने लगा उनके बारे में। एक दुकान में, एक बन्दा शेविंग करवा रहा था, फोटो देखकर बोला कि "ये भैया तो रोज़ मेरी दूकान के सामने सुबह नौ बजे निकलते है, बहुत अच्छे कपड़े पहनते हैं। हाथ में एक बड़ी घड़ी भी पहनते हैं। लाल रंग के बाल हैं। पर कभी किसी से बात करते हुए नहीं देखा। आप कल आ जाओ मेरी दुकान पर, वहां मिल लेना इनसे।" मैं कल होने का इंतज़ार करते हुए वहां पास के एक लोंज में जाकर रुक गया। बस यही सोच रहा था कि सवेरा कितनी जल्दी हो जाए।

रविवार, 26 जुलाई 2009

और एक बार फिर मेरी मौत हो गयी...

क्या सोचने लगे जनाब? यही कि इंसान तो एक ही बार पैदा होते है और एक ही बार मरता है लेकिन यहाँ पर "एक बार फिर मेरी मौत हो गयी" सोच कर अजीब लग रहा है? वैसे अगर लिखने वालों की बात करूँ तो ये कहना एकदम सही है कि ये मरते नहीं हैं, इनकी आत्मा किताब के पन्नो के बीच में दबी होती है और जैसे हो कोई उस पृष्ठ को खोलता है आत्मा बाहर आ जाती है। खैर, "मैं "अभी अपने शरीर में ही हूँ। एकदम सही सलामत, पर ये जो "मैं" है न, इसने खासा परेशां करके रखा है मुझे। ये "मैं " ही हर बार दम तोड़ देता है, कल रात भी ऐसा ही हुआ। फर्क इतना था कि कल रात I committed suicide और मैंने किया भी। और कल से पहले कई बार मैं बिना suicide के मारा गया। पर सवाल ये उठता है कि मैं मरता हूँ और फिर जिंदा हो जाता हूँ, कैसे? मेरा जीवन किसी पौधे के बीज की तरह है, जो एक जिंदगी के साथ धीरे-धीरे अंकुरित होता है। ये सच है कि मैं एक ही बार पैदा हुआ हूँ पर मौत कई बार हुई है। आज से कुछ साल पहले मेरे ह्रदय में मेरे बड़े भाई के लिए स्नेह का बीज जो था वो उसकी मृत्यु के पश्चात नष्ट हो गया। ये मेरी पहली मृत्यु थी। हाँ, अंश बाकी हैं अभी भी। उसके बाद फिर से किसी ने प्रेम का बीज बोया, उसका अंकुरण हो ही रहा था कि वो भी नष्ट हो गया, ये दूसरी बार मौत हुई। तीसरी बार तब जब पिता के सपनों को पूरा करने में असमर्थ रहा, चौथी बार फिर से प्रेम का अंकुरण हो ही रहा था कि वो संक्रमण का शिकार हो गया, इस प्रेम के अंकुरण पर अभी एक बात याद आ रही है। वो है एक फ़िल्म का संवाद, "लव आजकल" जिसमें ऋषि कपूर सैफ अली खान से कहते हैं, "सच्चा प्यार एक वार ही हुंदा है राजे" तो सैफ कहता है "मुझे तो कम से कम पंद्रह बार हो चुका है।" क्यों नहीं हो सकता यार, प्रकृति से सीखो... क्या धरती पर एक नस्ल के ढेर सारे पौधे नहीं हैं? हैं न! क्या कोई चीज़ दुबारा नहीं हो सकती? बेशक हो सकती हैं, भले ही एक जैसी न हो पर हो ज़रूर सकती है। खैर, बात करें अगली मौत की तो एक बहुत अजीज़ मित्र के जाने पर फिर से मौत हुई मेरी, और कल रात जब मेरे अस्तित्व को नकारा गया तो फिर मेरी मौत हो गयी। मेरी जिंदगी से जब-जब कोई जाता है, तब मेरी मौत होनी है ये मुझे मालूम है। क्योंकि मेरा जीवन इन सबसे जुडा हुआ है। मुझे मरने से बिल्कुल परहेज नहीं है क्योंकि मरने के बाद जो मेरा फिर से जन्म होता है वो पिछले से बेहतर होता है क्योंकि जिंदगी के लिए फिर से नया कुछ होता है। फर्क इतना है कि मैं अपनी पुरानी मौतें नहीं भूलता। मरने पर तकलीफ तो होती है पर हर तकलीफ में एक सबक होता है। फिर जिन्दा होता हूँ मैं मरने के लिए। इस मौत से मैंने क्या सबक लिया पता? यही कि अब मेरी अगली मौत इस वाली से अलग होगी और दुबारा मैं एक ही मौत नहीं मरूँगा। हालाँकि इतनी मौतों पर मेरी हालत कुछ ऐसी है जैसी इस शेर में कही गयी है....

मैं अपने ज़रफ से गिरता नहीं हूँ,
समंदर हूँ, कोई कतरा नहीं हूँ,
ये कहदो जाकर शहर वालों से,
मैं टूटा हूँ अभी, बिखरा नहीं हूँ...

(मजीद शोला की एक क़वाल्ली से)

शनिवार, 25 जुलाई 2009

बेवकूफ बादल

आज जब सीढ़ियों से मैं नीचे उतर रहा था, तो मेरे जूतों की हर एक ठक-ठक सीने में हथौड़े की तरह लग रही थी। वैसे तो मैं कई दफा अकेले ही सीढ़ियों से उतरा हूँ पर आज ये अकेलापन इस हद तक बढ़ गया कि जूतों की ठक-ठक मुझ पर एक ताना सा लग रही थी। " रह गए न अकेले, बेवकूफ" हर ठक पर यही ताना निकलता। इंसान ये कहकर ख़ुद को ढाढ़स बंधा सकता है कि अकेले आये हैं और अकेले जाना है तो फिर अकेले रहने से परहेज क्यों? खैर, अब तक वो जूतों की ठक-ठक मेरे ज़हन में गूँज रही है और ऐसा महसूस हो रहा है जैसे किसी ने भरे चौराहे में अपनी गन्दी गालियों से मुझे पानी-पानी कर दिया और मैं कुछ नहीं कर पाया। अब भाई, इंसान पर ख़ुद का ज़ोर नहीं चलता तो दूसरो पर क्या चलेगा? आप दूसरों को थप्पड़ मारकर आपके साथ रहने पर मजबूर तो नहीं कर सकते। दूसरों का भी अपना मन है जो किसी और के साथ रहने में ज़्यादा खुश रहता है। मेरे ख्याल से नजदीकियां इतनी हों के आप हाथ बढ़ा कर फासले को मिटा सकें लेकिन दुनिया में कोई नाप-तौल कर दोस्ती, मोहब्बत या रिश्तेदारी जैसे ताने-बाने नहीं बुनता और न ही किसी ने ऐसी नाप बनायी है। पर तब क्या जब कोई फासला ही न हो और नज़दीकियाँ इतनी जैसे बारिश की बूँद और बादल। बादल भी तो कितने वक्त तक बूँद को संभालकर रखता है, एक दिन वो बूँद भी उससे जुदा हो जाती हैं और जाकर मिल जाती हैं ज़मीन से। तकलीफ तो शायद उसे भी होती होगी, होती है शायद तभी तो कितनी ज़ोर से गरजता है बारिश के दौरान जब बूँद उससे दूर होती हैं। कभी-कभी तो बादल का गुस्सा ज़मीन पर भी बिजली बन फूट पड़ता है, इसी गम में कई महीनों तक आसमान से भी गायब हो जाता है बादल, कभी अगर आता भी है तो उस बूँद को देखने की कोशिश में थककर सो जाता है आसमान में ही और हवा उसे कहीं और बहा ले जाती है। वक्त बीतता है और फिर वही सिलसिला शुरू हो जाता है, बूँद उसके इतना नज़दीक आती है कि उसमें समां जाती है और एक दिन फिर छोड़ जाती है....तन्हा! क्या बूँद को भी बादल की याद आती होगी। शायद नहीं, क्योंकि वो तो बूँद है। जिस पर पड़ती है बिखर जाती है, ऐसे जैसे अपनी बाहें फैला दी हो उसने। बादल भी तो "बेवकूफ" है। जब मालूम है बूँद को जाना है तो सहेजता क्यों है उसे? मेरे ख्याल से बेचारा अकेले रहने से डरता है! मेरी तरह....

ये शायद मैं हूँ...

तेरे सवालों पर मेरी चुप्पी, तुमसे बहुत कुछ कहती है,
पर आज तक क्या कोई खामोशी को लफ्जों में समझ पाया है?

तेरे गुस्से पर मेरी आंखों की नमी, सावन का बादल बनकर बरसती है,
पर आज तक कौन सा बादल, धरती की तपिश को बुझा पाया है?

तेरे तकरार पर मेरे दिल की बेचैनी, ज्वर-भाटा सी घटती-बढती है,
पर आज तक कौन है जो, इससे उबर पाया है?

तेरे नफरत करने के अंदाज़ पर, एक शेर जुबां पर आया है,
पर ये शायद मैं हूँ, जो चुप रहकर ही इसे बयां कर पाया है।

मंगलवार, 21 जुलाई 2009

दूसरी दुनिया बनाने की तैयारी



आप हमेशा खुश नहीं रह सकते, रहना भी चाहें तो वो आपको रहने नहीं देगी। वही जिसे हम सब जिंदगी कहते हैं। सुबह आपके चहरे पर मुस्कराहट हो और दोपहर होते ही वो आंसुओं में बदल जाए, ऐसा होता है। बारिश के मौसम को गौर से देखिये, कब धूप निकल आएगी, कब बादल घिर आयेंगे और बरसने लग जायेंगे; सही-सही तो मौसम भविष्यवक्ता भी नहीं बता पाएंगे। खैर, अभी जब मैं ये लिख रहा हूँ तो आसमान में बड़ी तीखी वाली धूप खिली हुई है, बारिश वाली धूप जो बहुत चुभती है एकदम यादों की तरह। ऐसी यादें जो हैं तो बहुत प्यारी, जिन्हें आप याद करके सबके साथ खुश भी हो सकते हैं और अकेले में रो भी सकते हैं। बादल भी रोते हैं पर उनके रोने को हम बारिश कहते हैं, किसकी याद में रोते हैं ये तो नहीं मालूम पर इतना मालूम है कि शायद धूप भी उन्हें मीठी यादों की तरह चुभती होगी तब आंसू निकल आते होंगे। आज जब स्टूडियो की खिड़की से देख रहा था तो थोड़ा उदास था क्योंकि एक साथ बहुत सारे लोगों कि कमी अचानक से महसूस कराने में जिंदगी जुटी हुई थी। पहले बूंदा-बंदी और फिर ज़ोरदार बारिश भी शुरू हो गई थी, स्टूडियो के बाहर बादल बरस रहे थे और अन्दर मेरी आँखें। बादलों का तो नहीं पता पर मुझे अपना दोस्त याद रहा था, "विकास"। थोड़ी देर के लिए ही सही, मैं स्वार्थी हो गया था। यही सोच रहा था कि वही क्यों, मैं क्यों नहीं। कुछ साल पहले मेरा बड़ा भाई और अब कुछ दिन पहले मेरा दोस्त। दोनों एक ही जगह चले गए, दोनों का स्नेह तो मेरे लिए था पर टेलेंट दुनिया के लिए और मुझे ये भी लगता है कि दोनों जिस जगह पर हैं, वहां से मेरी जिंदगी बनाने में कोई कसर नहीं छोडेंगे। जिस ऊपर वाले ने उन्हें बुलाया है उसकी नाक में ज़रूर दम करेंगे और थक-हारकर दुनिया को चलाने वाला भी उनके इशारों पर चलेगा। जो लोग उन दोनों को जानते हैं वो मेरी बात से ज़रूर सहमत होंगे। कभी-कभी ऐसा लगता है कि दुनिया चलाने वाला इस दुनिया के हाल और हालत से बड़ा खुश है तभी तो ऐसे दो लोगों को अपने पास बुला लिया जो उसकी सल्तनत के लिए खतरा थे। दोनों के गजब का जोश पूरी दुनिया पर भारी पड़ने वाला था। इस दुनिया की सल्तनत का मालिक बड़ा डरपोक है और स्वार्थी भी। मेरा ख्याल तो आया ही नहीं, तन्हा कर दिया। अब ऐसा कोई नहीं है जो मेरे साथ स्याह रात में वक्त बे वक्त निजी जिंदगी से लेकर दुनियादारी की बातों पर चाय की भाप और सिगरेट का धुँआ उड़ा सके। किससे उम्मीद करूँ, इस दुनिया का मालिक तो अपनी ही बनाई बेशकेमती चीज़ों का कलेक्शन करने में लगा हुआ है। शायद इस दुनिया को मिटाने के पहले अपनी कुछ नायाब चीज़ों को समेटकर दूसरी दुनिया बनने की तैयारी में लगा है वो। पर इतनी भी क्या जल्दी है इस दुनिया को मिटाने की, कि हम लोगों के आंसू देखने की भी फुर्सत नहीं है उसे?

रविवार, 19 जुलाई 2009

" अबे ! सुनो हम जा रहे हैं, तुम अपना ख्याल रखना। bye "


कल रात हवाएं बहुत तेज़ चल रही थी, बैचेन थीं शायद। हवाओं की बैचेनी से झलक रहा था, जैसे किसी बात को कहने की बहुत जल्दी हो। मौसम भी अचानक ही बदल गया था, मैं नर्मदा तट से लौट रहा था, तभी जेब में रखा मोबाइल बजा। मेरे मित्र अंसारी जी का कॉल था,कहने लगे कि गाड़ी किनारे लगाओ पहले, मैंने वैसा ही किया। उसके बाद जो उन्होंने कहा उस पर मैं कोई प्रतिक्रिया नही दे पाया। क्योंकि उसे वक्त मेरी एक मित्र गाड़ी पर मेरे पीछे बैठी हुई थी। उसके जन्मदिन पर बस दीपदान करके ही लौट रहे थे। थोड़ी दूरी पर मेरा एक और मित्र मिल गया और अगले एक घंटे में मेरी मित्र का जन्मदिन मनाया जा चुका था और उस एक घंटे में मेरे पास ऐसा कितने ही फ़ोन काल्स आ चुके थे, जिन पर मैं कोई भी प्रतिक्रिया नहीं दे पा रहा था। पहली बार बहुत अक्षम सा महसूस हो रहा था। कुछ देर बाद अपने दोनों मित्रों को छोड़ने बाहर आया, आसमान में देखा तो लाल बादल छाये हुए थे, जैसे ताज़ा खून अभी किसी ने आसमान में बिखेर दिया हो। हवाएं और तेज़ हो चली थीं, जैसे किसी बात को कहने के बाद बेचैनी और बढ़ जाती है ठीक वैसे ही हवाएं और बेचैन हो उठी थीं। मैं ऊपर अपने मित्र के फ्लैट में पहुँचा, थक के बैठक के बिछौने में ही बिखर गया। हवाएं बहुत तेज़ हो चुकी थीं, ऐसा लग रहा था, जैसे खिड़की-दरवाज़े तोड़कर घर में दाखिल होना चाहती हो। अब भी किसी बात की बैचेनी हवाओं की सरसराहट में महसूस कर सकता था मैं। कुछ देर बाद मेरी मित्र ने मेरे चहरे पर आते-जाते हुए भावों को देखकर जानना चाहा की मुझे क्या हुआ है? मैं तो सही सलामत था, लेकिन मेरा अभिन्न मित्र, विकास परिहार अब इस दुनिया में नहीं है। भोपाल में थोड़ी देर पहले शाम को उसकी एक सड़क हादसे में मौत हो गई। ये वही व्यक्ति है जो अपनी स्पष्टवादिता, साहित्यिक ज्ञान, मेहनत, लगन, लिखने की अद्भुत कला, अपनी अद्वितीय हिन्दी ब्लॉग्स, बड़े भाई के लिए किए गए अपने सपनों के त्याग(जिसे सिर्फ़ मैं जानता हूँ), तीखी प्रतिक्रियाओं और न जाने कितनी ही विस्मयकारी प्रतिभाओं के लिए जाना जाता था। अपने परिवार, मित्र गण और जानने वालों के साथ-साथ साहित्य जगत को भी अपनी कमी से भर जाने वाला मेरा मित्र, अब सिर्फ़ इन्टरनेट के ब्लॉग्स, पत्रकारिता की उत्तरपुस्तिकाओं, रेडियो पर आने वाले अपने शो की पुरानी रिकॉर्डिंग (93.5 sfm jabalpur में DD यानि धर्मध्वज संकटमोचन नारायण प्रसाद सिंह पाण्डेय धरमवीर कुमार चक्रवर्ती शर्मा उर्फ़ DDSM NPSM DKCS नाम से पूरा पर आधा अधुरा कहने वाला रेडियो जौकी, तफरीह जंक्शन में मेरे साथ कभी शो किया करता था। ) , लोक सेवा आयोग की मुख्य परीक्षा में शामिल होने वाले प्रतियोगियों की लिस्ट और सोशल नेट्वर्किंग साइट्स की प्रोफाइल्स में रह गया था। हम दोनों एक-दूसरे को पिछले चार साल से जानते थे, रेडियो में आने से पहले दोनों के बीच की understanding तो अच्छी थी लेकिन chemistry बिल्कुल नहीं थी, जिसकी दरकार रेडियो में थी। बहुत जल्द chemistry भी बन गई। रेडियो के श्रोता हम दोनों की शो में होने वाली नोक-झोंक को बहुत पसंद करते थे। मेरा दोस्त कहता था कि उसका राजयोग लिखा है, हम दोनों एक साथ ही नौकरी करते एक साथ ही छोड़ते। ज्यादातर लोग हम दोनों को नौकरी छोड़ने के लिए जाने जाते थे। उसके कहने पर ही रेडियो पर मैं आया, आज उसका अहसानमंद हूँ कि उसकी वजह से शहर के लाखों लोग मुझे जानने लगे हैं। पर जब भी मैं उसे यही अहसान वाली बात कहता तो चिड कर कहता, तुम अपनी प्रतिभा की वजह से यहाँ हो। खैर, प्रतिभा की बात ठीक है लेकिन अगर उसने मुझे इंटरव्यू की सूचना नहीं दी होती तो मैं अभी किसी अखबार की नौकरी बजा रहा होता। रेडियो की जॉब भी उसने शायद ही पूरे एक साल की होगी, नौकरी छोड़ कर वो लोक सेवा आयोग की परीक्षा की तैयारी करने लगा था, पहली परीक्षा तो उसने बिना कोचिंग के निकाल चुका था, मुख्य परीक्षा के लिए कोचिंग करने भोपाल में कुछ दिनों से था। नर्मदा से लौटते हुए अपनी मित्र से बस उसकी ही बात कर रहा था, कि मेरे पास अंसारी जी का फ़ोन कॉल आ गया....... कल रात जब कोई आहट होती तो ऐसा लगता कि "विकास" आकर कहने वाला हो - " अबे ! सुनो हम जा रहे हैं, तुम अपना ख्याल रखना। bye "





विकास उर्फ़ Rj DD तफरीह जंक्शन शो में






विकास उर्फ़ Rj DD तफरीह जंक्शन शो के दौरान मेरी चोटी (शिखा) को खीचते हुए। मस्त टाइम था वो।


विकास परिहार के कुछ ब्लॉग्स
http://ishamammain.blogspot.com/
http://swasamvad.blogspot.com/

विकास परिहार के सोशल नेट्वर्किंग प्रोफइल्स
www.orkut.co.in/Main#Profile.aspx?origin=is&uid=10674325345367446864

www.orkut.co.in/Main#Profile.aspx?uid=11084617886346061862

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विकास परिहार की एक रचना :
Tuesday, October 23, 2007

ऐ मौत मुझे ले चल

दिल में उथल-पुथल है,
मन में मची है हलचल।
ऐ मौत मुझे ले, ऐ मौत मुझे ले चल।

स्वस्म्वाद से...



विकास परिहार दाहिने से दूसरा (खड़े हुए)


श्रद्धांजलि .......

शनिवार, 18 जुलाई 2009

मैं झूठ हूँ....

सच तो ये है कि मैं झूठ हूँ। झूठ बड़ा या छोटा नहीं होता, बस झूठ होता है। बिल्कुल मौत की तरह, जैसे मौत छोटी या बड़ी नहीं होती, वैसे ही। किताब की मानिंद ख़ुद को उलट-पलट कर देखा, तो यही महसूस हुआ कि इस किताब को नए सिरे से लिखने की ज़रूरत है पर इस किताब का क्या होगा जो लिखी जा चुकी है। हर पन्ने पर आड़ी-तिरछी लकीरों से बने शब्दों में कोई न कोई कहानी है, जो किसी से छुपी नहीं है। अब अगर सच को सामने लाना भी चाहूँ, तो पहाडों को काटने जितनी मेहनत करनी पड़ेगी। अगर चाहूँ कि कुछ पन्ने फाड़ कर फ़ेंक दूँ, तो वो खाली जगह देखकर हमेशा उनकी कमी महसूस होगी। सच कहूँ तो झूठ में जीना भाले की नोक पर करतब करने के जैसा होता है, ज़रा सी चूक और आप ख़त्म, ये सच है कि अपनी सहूलियत के मुताबिक ही लोग अपनी जिंदगी का रास्ता चुनते हैं। पर चुना हुआ रास्ता हमेशा आपको सही लगे ये आपके लिए सही साबित हो और अगर हो भी जाए तो आपका ज़मीर नाम का भूत आपके सामने आकर आपको प्रताड़ित करने लगता है। मैं भी प्रताड़ित हो रहा हूँ, अपने झूठ की वजह से। अगर मैं अपने झूठ पर कायम रहूँगा तो मेरे जीवन पर कोई असर नहीं पड़ने वाला और अगर सच को चुनता हूँ, तो पता नहीं अंजाम क्या होगा। वैसे मैं गाँधी की तरह सत्य के प्रयोग करने में विश्वास नहीं करता। क्योंकि सत्य का आप क्या प्रयोग करेंगे, सत्य तो आपको परखता है की आप कितने सच्चे हैं। अगर इंसान सोचना शुरू करते तो सभी इसी पेशो-पेश में पड़ जायेंगे कि कौन सी राह अख्तियार करें। सच ये भी है कि, झूठ होते हुए सच लिखना मुश्किल है। फिर भी इस मुश्किल को आसान करना उतना ही कठिन है, जितना ख़ुद में सरल हो जाना और सरल होने के लिए सच होना ज़रूरी है। मैं सरल होने कि कोशिश कर रहा हूँ.....

गुरुवार, 16 जुलाई 2009

प्यास

बारिश का दिन और पानी ही पानी....
फिर भी प्यास है कि बुझती नहीं..

मंगलवार, 14 जुलाई 2009

मेरा यकीन...

अपने यकीन को ख़ुद से सरकने मत देना,
यूँ किसी पर हुआ तो, गिर जाएगा।

सरप्राइज़...

ऑफिस में पहली दफा उसे कब देखा था, ये तो उसे भी मालूम नही था। पर मुझे याद है, जिस दिन मेरा इंटरव्यू था। 8 मार्च, यही तारिख थी। खैर, मैं उस इंटरव्यू में अपने दोस्त के कहने पर ही गया था। मेरे दोस्त के कॉल की वजह से सुबह जल्दी उठाना पड़ा, वरना धूप के दस बजने से पहले अपनी सुबह उस वक्त नही होती थी। इंटरव्यू में शहर के बड़े-बड़े दिग्गज आए थे, कोई न्यूज़ रीडर , कोई वॉईस ओवर आर्टिस्ट और कोई बड़ा पत्रकार। ये सारे बड़े -बड़े लोग जिस जॉब के लिए आए थे, वो भी छोटी नही थी...रेडियो जौकी का जॉब। मनोबल थोड़ा डगमगा गया था मेरा और वैसे भी मेरा टारगेट नौकरी करना नही था। मैं सिर्फ़ अपने दोस्त की जुबां पूरी करने आया था। सबसे आखिरी में मेरा नम्बर आया और सम्भावना भी दिखाई दी की ये जॉब मुझे मिलना है। इंटरव्यू से कुछ देर पहले उसे जाते हुए देखा था, चेहरा तो नही देख पाया था और देखने का कोई ख्याल भी नही था। 11 मार्च को रेडियो स्टेशन से कॉल भी आ गया ज्वाइन करने के लिए। वहां पहुँचा तो पूरी टीम से मुलाकात हुई, और इंटरव्यू के दिन जिसे जाते हुए देखा था, वो भी सामने बैठी हुई थी। सच कहूँ तो अभी तक भी कोई ख्याल मेरे सिर से नही टकराया था। हमारा स्टेशन 19 मार्च को लॉन्च हो गया था, तीन दिन बाद 21 मार्च आ गया, वही दिन जो अल्लाह मियां ने हमारे मिलने को मुकरर कर रखा था। रेडियो लॉन्च होने के बाद से हर रोज़ मोबाइल पर बात हुआ करती थी, उसे मेरे शोज़ पसंद आते थे और उस बारे में ही बात हुआ करती थी। पर 21 मार्च के बाद से बात करने का सलीका भी बदल गया। मैंने उससे कह रखा था की मैं मुसलमान हूँ, तब उसने कुछ नही कहा, वो वैसे ही मुस्कुराकर मेरे गले में बाहें डाले मेरे सिर के लंबे बालों को, घनी दाढी-मूछों को टकटकी लगाकर देखा करती। मेरे सिर पर एक काली रूमाल सफ़ेद धब्बों वाली बंधी हुआ करती थी। उसे में दिखने में भी अच्छा लगता था। मैं उसके जन्मदिन पर एक सरप्राइज़ देने का भी वादा किया था। 31 march की शाम जब वो घर जा रही थी तो उसके हैंडबैग में चुपके से एक तोहफा रख दिया, जिसकी ख़बर उसे रात बारह बजे उसके घर पहुँच कर दी, वो पहला सरप्राइज़ था। दूसरा सरप्राइज़, उसी दिन यानी एक अप्रैल, जन्मदिन की शाम को होटल की टेबल पर आइस क्रीम खाते हुए....मैंने उससे कहा " मैं मुसलमान नही हूँ।" उसकी आँखें खुशी से भर गई, कहने लगी "मेरे मम्मी-पापा, एक मुसलमान से मेरी शादी के लिए राज़ी नही होते, अच्छा हुआ तुम हिंदू हो। वक्त गुज़रा, नजदीकियां ख़त्म हो चुकी थी लेकिन अब हमारे दरमियाँ फासले भी बढ़ने लगे थे। छोटी-छोटी बातें बिगड़ जाती और कई दिनों तक खिंच जाती। एक दिन उसके मोबाइल पर उसके "बौयेफ्रैंड" का एसएमएस देखकर हाथ-पैर ठन्डे पड़ गए, आंखों से आंसूं निकलने लगे, हालत ख़राब हुई तो हॉस्पिटल में दाखिल होना पड़ा। कुछ दिनों बाद मुझे पता चला की मुझे कोई दिमागी बीमारी है, कौन सी ये तो मुझे नही मालूम था। क्योंकि ये अफवाह उसी की उड़ाई थी, यकीन नही हो था मुझे। उसका दूसरा प्यार परवान चढ़ता जा रहा था और मेरी रातें सुबकते-सुबकते सुबह में बदल रही थी। हम दोनों को मिले एक साल से कुछ दिन ज़्यादा का वक्त हुआ और उसका जन्मदिन आ गया, तब उसने कहा कि "तुम्हारी जात हमारी जात से कम दर्जे की है, मेरी बड़ी बहिन की शादी में तुम्हारी वजह से अभी से अड़चने आनी शुरू हो गई हैं, और वैसे भी मेरे मम्मी-पापा नही चाहते कि मैं हमारी जात से नीचे की जात वाले शादी करूँ। काश तुम मेरी ये फिर ऊँची जात के होते तो शायद हमारा एक साथ रहना मुमकिन हो पाता। उस बार उसके जन्मदिन पर उसने मुझे सरप्राइज़ दे दिया था।

बुधवार, 8 जुलाई 2009

खुली आंखों का ख्वाब.....

वैसे तो मुझे ख्वाब देखे अरसा हो गया है, बंद आंखों के ख्वाब। पर जब आज तुम मेरे बगल में सोयी हुई, गहरी नींद में लम्बी-लम्बी साँसे ले रही हो तब यकीन होता है की मैं जाग रहा हूँ। पूरे कमरे में सिर्फ़ दो ही चीज़ें सुनाई दे रही हैं, एक पंखें की आवाज़ है और दूसरी तुम्हारी साँसे। थोडी देर पहले तुमने मुझसे कहा था की अगर तुम्हारा कोई फ़ोन आए सेल पर तो मैं उन्हें कह दूँ की तुम सो चुकी हो, मैंने ऐसा ही किया। हालांकि अब मुझे उम्मीद है कि फ़ोन नहीं आयेंगे, रात के दो बजने को जो हैं और बहुत सारे लोग थकी-मांदी हालत में नींद की आगोश में पनाह ले चुके हैं। ख्याल तो मुझे भी आ रहा है कि सो जाऊँ पर उससे पहले खिड़कियाँ खोल लूँ ताकि ताज़ी हवा आती जाती रहे कमरे में। पर ये ख्याल तब तक मुझ पर हावी नहीं होगा, जब तक ऑफिस की बातें मेरे दिमाग से नहीं चली जाती। तुम तो जानती हो आज क्या हुआ ऑफिस में, बहुत तकलीफ होती है जब अपने ही आपकी शिकायत ग़लत लहजे में करें। खैर, तुमने मुझे बहुत समझाया तभी मेरी आँखें सूखी हुई हैं। वरना, रोते हुए तो तुम मुझे देख ही चुकी हो। गुलज़ार साहब की "रावी के पार" में चौरस रात पढ़ रहा था, तभी सोचा कि आज की रात को कैद कर लूँ लफ्जों में। सोने से पहले तुम इसी किताब के बारे में कह रही थीं और तो और ऑफिस में भी गुलज़ार साहब के लिखे हुए लेटेस्ट गाने सुन रहे थे हम। मैं गुलज़ार तो नहीं हो सकता, पर उन्होंने जैसा राखी के लिए लिखा शायद लिख पाऊं। कोशिश करता हूँ.....

बारिश की सूखी रात में , बादलों की ओट में एक चाँद आसमान में धुंधला चमक रहा है,
और एक, इमारत की चौथी मंजिल में अपने बिस्तर पर बेडशीट ओढे, गहरी साँस ले रहा है।

पता नहीं तुम्हे कितनी पसंद आएगी ये लाइने...पसंद आएँगी भी या नहीं, वो भी नहीं मालूम।

लिखते-लिखते नोट पैड के दुसरे पन्ने पर पहुँच गया हूँ और मुझे वो ख्वाब याद आ गया, जिसे लिखने की कोशिश कर रहा हूँ। सच कहूँ तो आज तक इस ख्वाब का ज़िक्र किसी से नहीं किया, सिर्फ़ महसूस किया करता था कि मेरी मोहब्बत गहरी नींद में सिमटी हो और मैं अपनी मेज़ के सामने बैठकर अपना काम करते जाऊं, लिखने का-पढने का जो भी हो। ....और जैसे ही मुझे थकान लगने लगे, बस तुम्हारा चेहरा देख लूँ, जो कॉफी की मानिंद कम कर जाए। हलाँकि अभी तुम्हारे ही बैड पर बैठा हुआ हूँ। आज ही तो तुम्हें अपनी मोहब्बत से वाकिफ करा पाया हूँ, पर तुम्हें अब भी मेरी बातें मज़ाक ही लग रही होंगी। हो सकता है मेरे कहने का सलीका रेशम की तरह नरम रहा होगा, पर क्या कर सकता हूँ। तुम तो जानती हो न मुझे, "पागल" ! इसी नाम से खींचती हो मुझे। अरे! इस महीने तो तुम्हारा जन्मदिन है, शनिवार को। शुक्र है! मेरी छुट्टी है उस दिन। पता नहीं क्या करूँगा उस दिन? पर जो भी करूँगा तुम्हें पसंद आ जाए। तुम्हें तो वो दिन याद होगा, जब तुम अपनी दीदी की शादी में बंगलुरु नहीं जा पायी थीं। उस दिन तुम्हारा मन बहलाने के लिए मैं तुम्हें दीपदान कराने नर्मदा नदी ले गया था और नाव में घूमते वक्त तुमने अपनी मम्मी से फ़ोन पर इस बात का ज़िक्र किया था। उस दिन तुम्हारे थैंक्स सुन सुन कर मेरे कान हड़ताल पर चले गए थे। बहुत खुश हो गई थी तुम, ऑफिस में तुमने मिठाई भी बांटी थी। मेरा बस चले तो तुम्हारा हर दिन स्पेशल बना दूँ, पर क्या करूँ ? इवेंट मेनेजर नहीं हूँ न! रेडियो जौकी हूँ, हँसी आती है मुझे...ख़ुद पर। जब तुम्हारे काजल के अलग अलग रंगों को देखकर पूरा दो घंटे का शो उस पर बना दिया था, सवाल क्या था शो में? हाँ, लड़कियां आंखों के नीचे काजल क्यों लगाती हैं? और शायरी भी कुछ काजाल पर ही थी। आज तो तुमने पर्पल कलर का काजल लगाया था, वो दिख रहा है तुम्हारी पलकों के ऊपर और आंखों के नीचे। वैसे पर्पल कलर की डिजाईन और बॉर्डर भी है तुम्हारी बैड शीट पर, जिसे तुम ओढ़कर सोयी हो और गहरी नींद में लम्बी-लम्बी सांसें ले रही हो....बहुत खूबसूरत लग रही हो।

गुरुवार, 25 जून 2009

किसी मतलब का नही बंद.

२३ जून जबलपुर बंद...दुकाने बंद, सड़क पर ऑटो बंद, पर अपना ऑफिस खुला का खुला । भला रेडियो भी कभी बंद होता है। उस दिन बड़ी जबरदस्त भूख भी लगी थी, खाने का टिफिन भी ऑफिस नही आया, टिफिन वाले ने बिना बताये हमारे प्राण लेने शुरू कर दिए, और तो और उसी दिन अपना पर्स भूलना था मुझे घर पर। क्रिटिकल कन्डीशन, भूख है की बढती जा रही थी। सोचा साथ वालों से कुछ पैसे लेकर कुछ मंगवा लूँ, हालांकि जबलपुर बंद था पर हमारे बिल्डिंग के ग्राउंड फ्लोर की बेकरी का आधा शटर खुला हुआ था। इससे पहले वो बंद हो जाता, मैंने अपने साथ अपने दोस्तों के लिए पेटिज़ मंगवा ली। पेटिज़ आने के बाद भूख का मामला निपटा, महज़ दो पेटिज़ खाकर अपने शाम के तीन शो किए। मेरा दोस्त ऑफिस आया घर की चाबी लेने, रात के लगभग ९:३० बज रहे थे, तब तक टिफिन नही आया था, यानि टिफिन वाले ने भी अघोषित अवकाश ले लिए था। खैर हम तो ऐसी ही स्थितियों में सर्वाइव करने के लिए पैदा हुए हैं, इसलिए फिक्र का नामो निशाँ नही था। जो मेरा मित्र मुझसे मिलने आया था उसने जाकर खाना पैक करवा लिया और ऑफिस ला दिया, जिससे मैं और मेरा एक सहकर्मी भूख की वजह से कल के अखबार की हेड लाइन बनते बनते रह गए। भोजन करने के बाद कुछ काम था, तो मैं कंप्यूटर पर व्यस्त हो गया। मेरा दोस्त घर जाने के लिए मेरा इंतज़ार कर रहा था। जैसे तैसे १२ बजे के बाद ऑफिस से निकला और बस स्टैंड गए चाय पीने। घर को लौट ही रहे थे की रास्ते में एक खाकी वर्दी वाले भाईसाब ने हाथ देकर रोका, आग्रहपूर्वक पूछा की कहाँ तक जा रहे हो? उन्हें मेरे घर से करीब २ किमी आगे जाना था। फ़िर भी मैंने उन्हें बैठा लिया, रास्ते में उन्होंने बताया की उनकी गाड़ी पंचर हो गई है और आज जबलपुर बंद था इसलिए परेशान हैं। ऊपर से पुलिस की नौकरी, कहने लगे की सुबह से जबलपुर बंद में व्यस्त थे...और शाम को नर्मदा के किनारे परेशान हो रहे थे, कोई लड़का डूब गया था किसी संघ का, मुख्यमंत्री जी के फ़ोन की वजह से पूरा पुलिस विभाग लगभग तट पर ही था। अब पुलिस क्या क्या करे? जबलपुर बंद का कोई मतलब नही है क्योंकि दूध की मूल्यवृद्धि के विरोध में बंद हुआ है और जिन डेरियों की वजह से परेशानी है वो या तो नेताओ की हैं, या फिर उनमें सांसदों या विधायकों का पैसा लगा हुआ है, तो क्यों कोई नेता अपना नुकसान करना चाहेगा, नेताओ की वजह से कानून व्यवस्था भी बिगड़ रही है। अगर इनके किसी कार्यकर्ता को पकड़ लो तो फ़ोन आ जाता है विधायक का कि देख लेना अपना लड़का है, अब विधायकों को भी तो चाहिए कोई झंडे और बैनर लगाने वाला और इन लड़को को चाहिए माई-बाप। मेरा घर आया तो मैंने अपने दोस्त को घर कि चाबी देकर रवाना कर दिया फ़िर उन्हें लेकर आगे बढ़ गया। जब उन्हें पता चला कि मेरे पिताजी भी पुलिस में हैं तो कहने लगे कि तुम अपना जीवन संवार लो, क्या रखा है प्राइवेट नौकरी में। अगर कुछ बन जाओगे तो पिताजी को लगेगा कि तुम कुछ अच्छा कर पाये। ह्म्म्म्म्म... पर इन्हे कौन समझाए कि मैं भीड़ से अलग चलने का मन बनाकर ही निकला हूँ और सोचो अगर मैं आज रेडियो में जॉब नही कर रहा होता तो शायद खाकी वर्दी वाले अंकल मेरे साथ उनके घर नही जा रहे होते। बातों ही बातों में बताया कि उनके नगर पुलिस अधीक्षक से भी सवाल जवाब वाले प्रोग्राम में रु-ब-रु हो चुका हूँ तो वो खुश हुए, जाते जाते कहने लगे कि सीधे घर जाना, वक्त बहुत ख़राब चल रहा है। मैं निकल गया अपने घर के लिए , सोच रहा था कि वक्त तो वही है बस लोगों का नजरिया बदलता जा रहा है। किसी को फायदा चाहिए तो किसी को सुविधाएँ, लेकिन ख़ुद के लिए भले ही दूसरे परेशान होते रहें। वक्त उतना भी ख़राब नहीं, वरना मैं जल्दी घर चला गया होता या फिर किसी के हाथ देने पर रुकता ही नहीं, चाहे वो कोई भी हो। फिलहाल अभी के लिए विदा...रात के बारह बजने में बस १७ मिनट ही बाकी हैं...

मंगलवार, 23 जून 2009

एक रात जैसे एक लम्हा......

जिंदगी आपको कब कौन सी खुशी दे दे, इसका अंदाजा आप नही लगा सकते। पिछले कुछ दिनों से मेरे साथ यही हो रहा है। जिंदगी के कैनवास से अगर कोई रंग धुल जाता है तो उसकी जगह कोई नया रंग ले लेता है, हांलाकि ये ज़रूरी नही कि खाली जगह एकदम से भर जाए। इंतज़ार करना बेवकूफी है, आप बस अपने काम में लगे रहिये। जीवन आपको किसी ऐसे रास्ते पर ज़रूर ले जाएगा जहाँ आप अकेले नही होंगे। तारीखों का ज़िक्र करना मैं ज़रूरी नही समझता फिर भी वो रात मैं नही भूल सकता, जब मैं खुशियों की आगोश में था। यकीन मानिये जब आप खुश होते हैं तब आप यही सोचते हैं कि जिस पल में आप खुश हैं, वो वही थम जाए... कल सुबह की ही बात है जब मैं उस हँसी मिजाज़ को रुखसत दे आया। खैर ये फासले ज़्यादा दिनों तक नही रहेंगे, मैं जानता हूँ...कुछ दिनों बाद मैं फिर से मुस्कुराऊंगा।

इस बार कोशिश यही कि इस बार मेरी मुस्कराहट, दबे पाँव से आए और रूह तक जा पहुंचे, किसी को पता भी न चले। वैसे किसी को पता चलता भी नही है। कल मैं अपने दोस्त के शॉप पहुँचा, देर रात को उसकी शॉप खुली हुई थी, मेरे साथ मेरा एक दोस्त भी था जो मेरे साथी ही ऑफिस में है। उसे सिगरेट लेनी थी और मुझे सिम, मेरा दोस्त जो शॉप में बैठा हुआ था उससे मुझे एक सिम खरीदनी थी, वो हम दोनों से बोला कि भाईसाब! आपको तो कहीं आने जाने का टाइम नही मिलता होगा न, मैंने कहा - नही मिलता भाई...(सच ही है)। पर उस वक्त उसने ये कहकर चौंका दिया कि आपको वैसे भी कही आने जाने की ज़रूरत नही है, क्योंकि खुशी आपके आस-पास जो रहती है। वो शायद मेरे काम की बात कर रहा था, जिसके साथी मैं हमेशा कुछ रहता हूँ, लेकिन मुझे अब भी वही खुशी याद आती है, जिसके हर पल रहने की उम्मीद मैं ख़ुद से करता हूँ....खैर इस वक्त मेरे बाजू में मेरा एक अभिन्न मित्र बैठकर प्रतीक्षा कर रहा है की मैं कब घर जाऊँ, और तो और एक दोस्त और आ गया है जिसे मैंने लस्सी लाने को कहा था....सही बात है, खुशी मेरे आस-पास ही है...जिसे मैं हर पल महसूस कर सकता हूँ.....(रात के १२ बजकर छे मिनट हो गए हैं और बीतने को एक लम्हा बाकी है। ) .....शब्बाखैर!!!

शनिवार, 13 जून 2009

प्यार? प्यार? प्यार?

क्या हुआ ? अरे यार रेडियो जौकी भी इंसान ही होते हैं, और प्यार जैसी चीज़ से कौन बचा है? तो याद आया मुझे कि कभी इस दौर से भी गुज़र चुका हूँ। अक्सर जब आप लव स्टोरीज़ देखते हैं (जैसे मैंने आज देखि " A Walk to Remember") तो आपको भी अपनी कहानी याद आने लगती है, लेकिन अपने साथ ऐसा कुछ नही हुआ.........सच्ची। अब क्या गीता पर हाथ रख कर कसम खानी पड़ेगी।

मेरे साथ मेरी एक दोस्त भी यही फ़िल्म देख रही थी, उसने भी मुझसे पूछा कि क्या तुम्हे अपनी गर्लफ्रेंड की याद नही आती ( तो यार अब नही आती तो नही आती, अब आप अगर याद को रिश्वत देकर काम करवा सकते तो भी मैं शायद उसे याद नही करना चाहता।) खैर फ़िल्म बहुत अच्छी थी। पर फ़िल्म देखने के बाद एक अहसास हुआ की अगर आप किसी से प्यार करने लगते हैं और चाहते हैं कि आप जिसे प्यार करते हैं उसे ये मालूम चल जाए कि आप उसे प्यार करते हैं और वो भी आपका प्यार स्वीकार कर ले, वो लम्हा कितना मजेदार होता है, जब आपका दिल उसे देखते ही बल्कि उसके बारे में सोचते ही आपका दिल ज़ोर ज़ोर से धड़कने लगता है। हालाँकि जो फ़िल्म मैंने देखी, उसकी कहानी अलग थी। तो मैं फ़िल्म की बात नही कर रहा हूँ। अगर आपने उस लम्हे को जिया है तो शायद आपको बात समझ आए। अगर आपको इस बात का डर है कि अगर आप अपने प्यार का इज़हार करते हैं और वो आपके प्यार से इनकार कर देती है, तब आपका क्या होगा? वैसे एक चीज़ और भी है, अगर आपका प्यार स्वीकार हो भी जाता है तब शायद उन लम्हों जैसे feeling नही रह जाती।
जब आप किसी से प्यार कर बैठे हैं तो आपके लिए उस इंसान की हर एक चीज़ कीमती हो जाती है, उसकी बोली, उसकी गाली, उसका हँसना, उसका चीखना-चिल्लाना, उसका एक फ़ोन कॉल.....हाहाहाहाहाहाहा। और जब आपके प्यार का इकरार सामने वाला कर लेता है तब, तब तो कुछ दिन की मौज और उसके बाद....सुनो न; मैं काम कर रहा हूँ बाद में बात करेंगें या अभी मैं दोस्तों के साथ हूँ। अचानक प्यार की कीमत कम हो जाती हैं या प्यार करने का तरीका बदल जाता है। पहले जिसके लिए अपने ज़रूरी से ज़रूरी काम के बीच में से भी वक्त निकाल लिया करते थे, आज वही आपके वक्त के लिए तरस रहा होता है।
तो ये समझना बहुत मुश्किल है की ये प्यार किस खेत की मूली है, या ये मूली जैसा है भी या नही, जो देखने में सफ़ेद है और खाने के बाद....आप जानते हैं कि मूली खाने के बाद क्या होता है। खैर....पिछले महीने मैंने टेलिविज़न में एक मूवी देखी थी, "Life in a Metro" जिसमें एक बहुत अच्छा संवाद था....."रिश्ता (कोई भी रिश्ता) गारंटी कार्ड के साथ नहीं आता, प्यार होने से होता है और रिश्ता निभाने से निभ जाता है।" अच्छी बात कही थी बन्दे ने! खैर अभी शुभरात्री, बाकी बातें बाद में............