ज़िंदा होने का प्रमाण है बेचैनी, विचारों में उथल-पुथल की ज़िम्मेदार है बेचैनी, जीवन को गति देने का काम करती है बेचैनी, परिवर्तन को हवा देती है बेचैनी...
मंगलवार, 14 जुलाई 2009
सरप्राइज़...
ऑफिस में पहली दफा उसे कब देखा था, ये तो उसे भी मालूम नही था। पर मुझे याद है, जिस दिन मेरा इंटरव्यू था। 8 मार्च, यही तारिख थी। खैर, मैं उस इंटरव्यू में अपने दोस्त के कहने पर ही गया था। मेरे दोस्त के कॉल की वजह से सुबह जल्दी उठाना पड़ा, वरना धूप के दस बजने से पहले अपनी सुबह उस वक्त नही होती थी। इंटरव्यू में शहर के बड़े-बड़े दिग्गज आए थे, कोई न्यूज़ रीडर , कोई वॉईस ओवर आर्टिस्ट और कोई बड़ा पत्रकार। ये सारे बड़े -बड़े लोग जिस जॉब के लिए आए थे, वो भी छोटी नही थी...रेडियो जौकी का जॉब। मनोबल थोड़ा डगमगा गया था मेरा और वैसे भी मेरा टारगेट नौकरी करना नही था। मैं सिर्फ़ अपने दोस्त की जुबां पूरी करने आया था। सबसे आखिरी में मेरा नम्बर आया और सम्भावना भी दिखाई दी की ये जॉब मुझे मिलना है। इंटरव्यू से कुछ देर पहले उसे जाते हुए देखा था, चेहरा तो नही देख पाया था और देखने का कोई ख्याल भी नही था। 11 मार्च को रेडियो स्टेशन से कॉल भी आ गया ज्वाइन करने के लिए। वहां पहुँचा तो पूरी टीम से मुलाकात हुई, और इंटरव्यू के दिन जिसे जाते हुए देखा था, वो भी सामने बैठी हुई थी। सच कहूँ तो अभी तक भी कोई ख्याल मेरे सिर से नही टकराया था। हमारा स्टेशन 19 मार्च को लॉन्च हो गया था, तीन दिन बाद 21 मार्च आ गया, वही दिन जो अल्लाह मियां ने हमारे मिलने को मुकरर कर रखा था। रेडियो लॉन्च होने के बाद से हर रोज़ मोबाइल पर बात हुआ करती थी, उसे मेरे शोज़ पसंद आते थे और उस बारे में ही बात हुआ करती थी। पर 21 मार्च के बाद से बात करने का सलीका भी बदल गया। मैंने उससे कह रखा था की मैं मुसलमान हूँ, तब उसने कुछ नही कहा, वो वैसे ही मुस्कुराकर मेरे गले में बाहें डाले मेरे सिर के लंबे बालों को, घनी दाढी-मूछों को टकटकी लगाकर देखा करती। मेरे सिर पर एक काली रूमाल सफ़ेद धब्बों वाली बंधी हुआ करती थी। उसे में दिखने में भी अच्छा लगता था। मैं उसके जन्मदिन पर एक सरप्राइज़ देने का भी वादा किया था। 31 march की शाम जब वो घर जा रही थी तो उसके हैंडबैग में चुपके से एक तोहफा रख दिया, जिसकी ख़बर उसे रात बारह बजे उसके घर पहुँच कर दी, वो पहला सरप्राइज़ था। दूसरा सरप्राइज़, उसी दिन यानी एक अप्रैल, जन्मदिन की शाम को होटल की टेबल पर आइस क्रीम खाते हुए....मैंने उससे कहा " मैं मुसलमान नही हूँ।" उसकी आँखें खुशी से भर गई, कहने लगी "मेरे मम्मी-पापा, एक मुसलमान से मेरी शादी के लिए राज़ी नही होते, अच्छा हुआ तुम हिंदू हो। वक्त गुज़रा, नजदीकियां ख़त्म हो चुकी थी लेकिन अब हमारे दरमियाँ फासले भी बढ़ने लगे थे। छोटी-छोटी बातें बिगड़ जाती और कई दिनों तक खिंच जाती। एक दिन उसके मोबाइल पर उसके "बौयेफ्रैंड" का एसएमएस देखकर हाथ-पैर ठन्डे पड़ गए, आंखों से आंसूं निकलने लगे, हालत ख़राब हुई तो हॉस्पिटल में दाखिल होना पड़ा। कुछ दिनों बाद मुझे पता चला की मुझे कोई दिमागी बीमारी है, कौन सी ये तो मुझे नही मालूम था। क्योंकि ये अफवाह उसी की उड़ाई थी, यकीन नही हो था मुझे। उसका दूसरा प्यार परवान चढ़ता जा रहा था और मेरी रातें सुबकते-सुबकते सुबह में बदल रही थी। हम दोनों को मिले एक साल से कुछ दिन ज़्यादा का वक्त हुआ और उसका जन्मदिन आ गया, तब उसने कहा कि "तुम्हारी जात हमारी जात से कम दर्जे की है, मेरी बड़ी बहिन की शादी में तुम्हारी वजह से अभी से अड़चने आनी शुरू हो गई हैं, और वैसे भी मेरे मम्मी-पापा नही चाहते कि मैं हमारी जात से नीचे की जात वाले शादी करूँ। काश तुम मेरी ये फिर ऊँची जात के होते तो शायद हमारा एक साथ रहना मुमकिन हो पाता। उस बार उसके जन्मदिन पर उसने मुझे सरप्राइज़ दे दिया था।
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4 टिप्पणियां:
चलो, जो होता है अच्छे के लिए होता है. समय रहते बातें क्लियर हो गई.
apni batein aksar apne saath hoti hai,mulakat aur saath to waqt tai karta hai.god bls u
surprizes are those little moments which u can never forget.... whether good or bad...... ye to un angaaron ki tarah hain jinhe laakh bujha lo lekin ye bujhne ka naam hi nahi lete...........
"कौन होता है इंसान के साथ हर क़दम पर?
अपनी ही आँखों को देखो कि आखिरी वक़्त में पलट जाती हैं!"
प्यारे भैया मैं ये तो नहीं कहूँगा कि "प्यार" मत करो. पर इतना ज़रूर गुजारिश करूंगा कि जिसे "प्यार" जात और धर्म में जकडा हुआ परिंदा नज़र आता है उससे "प्यार" कि उम्मीद करना ही "प्यार" जैसे पवित्र बंधन कि तौहीन होगी. एक बात और आपने तो उसे खोया है जो आपको "प्यार" नहीं करता था, पर उसने तो आपको खोया जो उसे बेहद "प्यार" करता था. दुखी उसे होना चाहिए, आपको नहीं!
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