शनिवार, 25 जुलाई 2009

बेवकूफ बादल

आज जब सीढ़ियों से मैं नीचे उतर रहा था, तो मेरे जूतों की हर एक ठक-ठक सीने में हथौड़े की तरह लग रही थी। वैसे तो मैं कई दफा अकेले ही सीढ़ियों से उतरा हूँ पर आज ये अकेलापन इस हद तक बढ़ गया कि जूतों की ठक-ठक मुझ पर एक ताना सा लग रही थी। " रह गए न अकेले, बेवकूफ" हर ठक पर यही ताना निकलता। इंसान ये कहकर ख़ुद को ढाढ़स बंधा सकता है कि अकेले आये हैं और अकेले जाना है तो फिर अकेले रहने से परहेज क्यों? खैर, अब तक वो जूतों की ठक-ठक मेरे ज़हन में गूँज रही है और ऐसा महसूस हो रहा है जैसे किसी ने भरे चौराहे में अपनी गन्दी गालियों से मुझे पानी-पानी कर दिया और मैं कुछ नहीं कर पाया। अब भाई, इंसान पर ख़ुद का ज़ोर नहीं चलता तो दूसरो पर क्या चलेगा? आप दूसरों को थप्पड़ मारकर आपके साथ रहने पर मजबूर तो नहीं कर सकते। दूसरों का भी अपना मन है जो किसी और के साथ रहने में ज़्यादा खुश रहता है। मेरे ख्याल से नजदीकियां इतनी हों के आप हाथ बढ़ा कर फासले को मिटा सकें लेकिन दुनिया में कोई नाप-तौल कर दोस्ती, मोहब्बत या रिश्तेदारी जैसे ताने-बाने नहीं बुनता और न ही किसी ने ऐसी नाप बनायी है। पर तब क्या जब कोई फासला ही न हो और नज़दीकियाँ इतनी जैसे बारिश की बूँद और बादल। बादल भी तो कितने वक्त तक बूँद को संभालकर रखता है, एक दिन वो बूँद भी उससे जुदा हो जाती हैं और जाकर मिल जाती हैं ज़मीन से। तकलीफ तो शायद उसे भी होती होगी, होती है शायद तभी तो कितनी ज़ोर से गरजता है बारिश के दौरान जब बूँद उससे दूर होती हैं। कभी-कभी तो बादल का गुस्सा ज़मीन पर भी बिजली बन फूट पड़ता है, इसी गम में कई महीनों तक आसमान से भी गायब हो जाता है बादल, कभी अगर आता भी है तो उस बूँद को देखने की कोशिश में थककर सो जाता है आसमान में ही और हवा उसे कहीं और बहा ले जाती है। वक्त बीतता है और फिर वही सिलसिला शुरू हो जाता है, बूँद उसके इतना नज़दीक आती है कि उसमें समां जाती है और एक दिन फिर छोड़ जाती है....तन्हा! क्या बूँद को भी बादल की याद आती होगी। शायद नहीं, क्योंकि वो तो बूँद है। जिस पर पड़ती है बिखर जाती है, ऐसे जैसे अपनी बाहें फैला दी हो उसने। बादल भी तो "बेवकूफ" है। जब मालूम है बूँद को जाना है तो सहेजता क्यों है उसे? मेरे ख्याल से बेचारा अकेले रहने से डरता है! मेरी तरह....

3 टिप्‍पणियां:

पी.सी.गोदियाल "परचेत" ने कहा…

"बादल भी तो कितने वक्त तक बूँद को संभालकर रखता है, एक दिन वो बूँद भी उससे जुदा हो जाती हैं और जाकर मिल जाती हैं ज़मीन से। तकलीफ तो शायद उसे भी होती होगी, होती है शायद तभी तो कितनी ज़ोर से गरजता है बारिश के दौरान जब बूँद उससे दूर होती हैं। कभी-कभी तो बादल का गुस्सा ज़मीन पर भी बिजली बन फूट पड़ता है,........ क्या बूँद को भी बादल की याद आती होगी। शायद नहीं, क्योंकि वो तो बूँद है। जिस पर पड़ती है बिखर जाती है, ऐसे जैसे अपनी बाहें फैला दी हो उसने। बादल भी तो "बेवकूफ" है। जब मालूम है बूँद को जाना है तो सहेजता क्यों है उसे? मेरे ख्याल से बेचारा अकेले रहने से डरता है! मेरी तरह....


दो बाते कहूंगा, एक तो यह कि उपरोक्त भाव बहुत अच्छे लगे,
दूसरा यह कि आपके जूतों ने नीचे उतारते वक्त ठक-ठक की, बिस्वास मानिए ऊपर जाते वक्त नहीं करेंगे.......:-) गुस्ताखी माफ़ !

Chakreshhar Singh Surya ने कहा…

सच कहूँ तो गोदियाल साहब, ऊपर चढ़ते वक़्त आपको सबसे आगे रहने और सबसे जल्दी पहुचने की जल्दी होती है. ऐसे वक़्त में तो न ही आपको जूतों की ठक-ठक सुनाई देती है और न ही उन लोगों की सिसकियाँ जो आपके बेहद नजदीक होते हैं और आपके अपनेपन के आभाव में सुबकते रहते हैं. शायद ऊपर चढ़ते वक़्त हम ज्यादा "प्रोफेशनल" हो जाते हैं.

RAJNISH PARIHAR ने कहा…

मज़ेदार रचना...और सवाल जवाब भी.....