मंगलवार, 2 फ़रवरी 2010

धूप

दिन की धूप कभी इतनी उबाऊ नहीं थी,
जितनी आज लग रही है,
धूप भी चुपचाप मेरे कमरे तक आयी थी सुबह,
और धीरे-धीरे वापिस जा रही थी,
कभी-कभार आपस में हम खूब बतियाते थे,
परिंदों के किस्से, पहाड़ों के जुमले और नदियों की कहानी,
लेकिन आज उसके पास भी कहने के लिये कुछ नहीं है,
शायद उसका भी कोई अपना उससे बिछड़ गया है,
रूठ गया है,
धूप भी  तकलीफ में हैं,
इसलिए तो आज चुभ रही है...

2 टिप्‍पणियां:

shreya ने कहा…

:)

रामकृष्ण गौतम ने कहा…

वैसे ये दुनिया आभासी है भाईसाब! जैसी दिखती है वैसी होती नहीं और जैसी है वैसी नज़र नहीं आती... क्या कर सकते हैं हम?



रचना बहुत शानदार लगी...


शुभ भाव


राम कृष्ण गौतम