सोमवार, 8 मार्च 2010

मुक़म्मल

तुम ख़ुद एक ग़ज़ल हो,
तुम्हें किसी मिसरे की ज़रूरत नहीं,
तुम अपने आप में मुक़म्मल हो,
तुम्हें किसी शे'र की ज़रूरत नहीं...

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