गुरुवार, 11 मार्च 2010

रेस्त्रौं का बिल

तुम्हें पता है कि मैं रेस्त्रौं की पर्चियां क्यों संभाल कर रखता हूँ,
ताकि मुझे वो तारीख याद रहें, जब हम-तुम साथ थे,
ये तो साइंस ने भी पता लगा लिया है कि,
"हम" तारीख याद रखने के मामले में कमज़ोर हैं,
और वैसे भी भूलना तो इंसानी फ़ितरत है,
लेकिन भूले-भटके इंसान की भी ज़रूरत इश्क है,
पर मैं तुम्हें नहीं भूला हूँ,
और ऐसी ही किसी पर्ची पर आकर ठहर गया हूँ...

4 टिप्‍पणियां:

Udan Tashtari ने कहा…

पर मैं तुम्हें नहीं भूला हूँ,
और ऐसी ही किसी पर्ची पर आकर ठहर गया हूँ.


-चलिये, पर्ची काम आई..बढ़िया.

shreya ने कहा…

हकीकत हो या अफसाना, जिनकी फितरत हो भूल जाने की वो तो खुदको भूल जाते हैं..

संजय भास्‍कर ने कहा…

लेकिन भूले-भटके इंसान की भी ज़रूरत इश्क है,
पर मैं तुम्हें नहीं भूला हूँ,
और ऐसी ही किसी पर्ची पर आकर ठहर गया हूँ..


लाजवाब पंक्तियाँ ..........

Rj Ankit ने कहा…

YAAR....dil choo gayi teri...baat...ye kisi ko paakar hamari bhi aadat ban gai thi....i m feeling so embarrased...par..aaj tere blog par kahunga woh baat jo...kabhi kisi ko nahi batai...ek baar ek bill hamare volet se 8 mahine baad nikla...toh 6 din bad ek choti si ladaai mai koi keh gaya tha...."ha sahi hai aap toh hum par kharch ki gai ...paayi ka hisaab rakhte ho"....koi kaise keh deta hai pata nahi....par hum par jo gujri thi us waqt mai...baya...kabhi hum...tareeke se kar sakenge nahi...