शनिवार, 1 नवंबर 2014

हेलो... पप्पी चाहिए?

सत्य घटना पर आधारित...(अपनी रिस्क पर पढ़िए)
सुबह-सुबह की बात है एक लड़का सो रहा था. तभी उसका मोबाइल फ़ोन बजता है. अनजान नंबर है. फिर भी वो कॉल रिसीव कर लेता है और कहता है ... हेलो
उधर से एक लड़की की आवाज़ आती है.. जो बहुत उत्साहित होकर कहती है..... पप्पी चाहिए.
लड़के की नींद अचानक से छू-मंतर हो जाती है. वो कहता है... हाँ.. पर अभी रुको. मैं ब्रश कर लूँ.. नहा लूँ.. तैयार हो जाऊं. फिर तुम्हें कॉल करता हूँ....
लड़की कहती है ... ठीक है.
वो जल्दी से बिस्तर से उठता है और फ़टाफ़ट तैयार भी हो जाता है. तैयार होने के बाद वो उसे फोन लगाकर पूछता है कि....कहाँ आ जाऊं?
लड़की कहती है.. मेरे घर में.
वो उसके घर पहुंचता है..लड़की उसे सोफ़े पर बैठने को कहती है और पूछती है क्या लोगे चाय या कॉफ़ी.
लड़का शर्माकर कहता है... पप्पी
लड़की उसे कहती है.. तो ठीक है. घर के पीछे चलो.
लड़का उसके साथ चला जाता है.
पीछे जाते-जाते वो कहती है कि चार दिन पहले दो लोगों को दे चुकी हूँ. अगर तुम्हारे किसी और दोस्त को भी चाहिए तो बताना. फ्री में दे दूंगी. लड़का उसकी बातें सुनकर चौंक जाता है. उसकी आँखें तब फटी रह जाती हैं. जब वो कहती है...
जो मर्ज़ी ले लो... हमारी "सुनहरी" ने चार दिन पहले दिए हैं. कितने सुन्दर हैं न...पप्पी
P.S. आप क्या सोच रहे थे??? अरे भई स्वच्छ भारत अभियान चल रहा है... घर-मोहल्ला-सड़क बाद में साफ़ करना. पहले जो दिमाग में है उसे तो साफ़ कीजिये!!

बुधवार, 22 अक्तूबर 2014

लेखक पीड़ा में ही जन्म लेते हैं.

किसी लेखक के पैदा होने पर उसकी माँ को होने वाली प्रसव पीड़ा अन्य माताओं से अधिक होती है. जन्म के समय से ही निर्धारित हो जाता है कि जब वह अपने कौशल की प्रथम सीढ़ी पर पैर रखेगा और लेखक के रूप में संसार के सामने अवतरित होने की चेष्टा करेगा तो निश्चित रूप से उसे भी उतनी ही पीड़ा का अनुभव होगा जितना कि प्रसव के समय उसकी माँ ने किया था.
जब बाहर शोर हो रहा होता है तो अन्दर का ख़ालीपन बढ़ जाता है. कुछ लोग ऐसी परिस्थिति से भयभीत होकर ख़ुद ही उस शोर का हिस्सा बन जाते हैं. ताकि उनका ख़ालीपन इतना न बढ़ जाए कि वो शत्रु की सेना के समान उन्हें ही घेर ले. इस तरह की परिस्थितियों से एक लेखक कभी नहीं भागता. वे चाहे उसे कितना भी विचलित करने की कोशिश कर लें लेकिन वह बिना उनका सम्पूर्ण अनुभव लिए बाहर नहीं आता. वो इस उम्मीद में उनका डटकर सामना करता है कि हो सकता है उनसे प्राप्त अनुभूति उसकी अगली रचना के लिए प्रेरणा स्त्रोत बन जाए. हालाँकि ऐसा करना बहुत पीड़ादायक होता है और लेखक पीड़ा में ही जन्म लेते हैं. किसी लेखक के पैदा होने पर उसकी माँ को होने वाली प्रसव पीड़ा अन्य माताओं से अधिक होती है. जन्म के समय से ही निर्धारित हो जाता है कि जब वह अपने कौशल की प्रथम सीढ़ी पर पैर रखेगा और लेखक के रूप में संसार के सामने अवतरित होने की चेष्टा करेगा तो निश्चित रूप से उसे भी उतनी ही पीड़ा का अनुभव होगा जितना कि प्रसव के समय उसकी माँ ने किया था. माँ के लिए यह पीड़ा सहन करना इसलिए सरल होता है क्योंकि जो उसके भीतर था, जिसकी वह महीनों से कल्पना मात्र कर रही थी. उसकी वही कल्पना आज एक रचना के रूप में उसके हाथों में होगी. जब लेखक अपनी कल्पना के लिए प्रेरणा स्त्रोत ढूँढ रहा होता है तब वह भी पीड़ा के हर स्तर को पार करने की क्षमता रखता है. जब उसकी कल्पना सजीव होती है तो उसे भी माँ बनने का ही आनंद प्राप्त होता है. जिस तरह एक माँ के लिए अपनी संतानों में यह चयन करना कठिन होता है कि कौन उसे सबसे अधिक प्रिय है उसी तरह एक लेखक लिए भी यह चुनौती ही होती है कि वह अपनी किस रचना को श्रोताओं या पाठकों के सामने सबसे पहले प्रस्तुत करे. बस यहीं से एक लेखक और माँ में अंतर आ जाता है. माँ अपनी कमज़ोर संतान को ज़्यादा अवसर उपलब्ध कराती है लेकिन एक लेखक अपनी सबसे अच्छी रचना को श्रोताओं या दर्शकों के सामने सबसे पहले प्रस्तुत करता है. इस तरह से माँ अपने धर्म का पालन करती है और लेखक अपने परिवार का. एक लेखक के लिए व्यवसायिक होना उतना ही आवश्यक है जितना कि उम्र के सही पड़ाव में म्रत्यु का होना. दोनों ही परिस्थितियों में जीवन-यापन सरल नहीं होता क्योंकि लेखक भी पेट और जिम्मेदारियों के साथ ही पैदा होते हैं.

शनिवार, 14 जून 2014

Attitude

हमारी हैसियत का अंदाजा,
कोई इस बात से लगा ले,
कि हम अपनी बर्बादियों की सालगिरह भी,
बड़ी धूम-धाम से मनाते हैं...

गुरुवार, 12 जून 2014

फाडू डायलॉग - नंबर 1

किसी ने मुझसे पूछा - तुम्हें डर नहीं लगता क्या?
मैंने कहा - जान से ज़्यादा तो ऊपरवाला भी नहीं ले सकता.... ये नीचे वाले भी इससे ज़्यादा क्या लेकर जायेंगे??

(ये मेरी फ़िल्मी टाइप की असल ज़िन्दगी का डायलॉग है...और भी हैं लेकिन एक-एक करके दूंगा...क्योंकि एक बार में हैवी डोज़ लेने से तो डॉक्टर भी मना करते हैं )

गुरुवार, 5 जून 2014

गुरुवार, 15 मई 2014

बात जो आयी-गयी हो गई - 3

हमारे सपनों को चुनौती देने का किसी को कोई हक़ नहीं है, अगर कोई ऐसा करता है तो शायद वो ख़ुद ज़िन्दगी से हारा हुआ है.