ज़िंदा होने का प्रमाण है बेचैनी, विचारों में उथल-पुथल की ज़िम्मेदार है बेचैनी, जीवन को गति देने का काम करती है बेचैनी, परिवर्तन को हवा देती है बेचैनी...
मंगलवार, 19 जनवरी 2010
एक बार फिर प्यार का इम्तिहान हुआ...
पिछले एक हफ्ते से चल रही break up की कहानी शायद आज ख़त्म हो गयी. तमन्ना तो बहुत थी कि शायद इस बार जो अंजाम होगा वो अच्छा होगा. अब जो पूरी हो जाये वो तमन्ना ही क्या? ऐसा भी सुन रक्खा है मैंने. बहुत कोशिश की, जनाब! रात भर ठिठुरती सर्दी में बिन पानी और आग के सफलतापूर्वक survive करते रहे, लेकिन न मेमसाब आयी और न ही उनका कुत्ता. अब रात भर की तपस्या करने का मन बना ही लिया था, सोचा शायद अपने प्रेम और रिश्ते के लिए जद्दोजेहद देखकर शायद तरस आ जाये. थोड़ी देर पहले घुटनों पर बैठकर chocolate भी भेंट की थी. लेकिन परिणाम कुछ न हुआ. कुछ छः महीने ही तो हुए थे इस रिश्ते को परवान चढ़ते, लेकिन इन छः महीनों में अपने रिश्ते की ऊंचाई देखकर अच्छे आसार की उम्मीद थी. और अभी जब वो तपस्या चल रही है "बिना अन्न, जल और निद्रा" के कथन के साथ तो शायद हो सकता है कि इस बार उन्हें हम पर तरस आ जाये. पर कोई इतना कठोर कैसे हो सकता है? कि अपने साथी को जबलपुर में हाल की जनवरी में पड़ रही सर्दी में छोड़ दे. यकीन करें या न करें सच यही है कि इतनी कठोरता आपका अहंकार आप पर लाद देता है. पर ताली कभी एक हाथ से नहीं बजती. कुछ दिन पहले publicly, पार्किंग में एक incident हुआ, जहाँ मैडम ने कुछ ज्यादा जोर से ही अपनी frustration हम पर निकाल दी. जब इस बात का ज़िक्र मैंने किया तो माफी तो दूर, आस-पास किसी तरह की शर्मिंदगी भी नहीं थी. और जब मैं पार्किंग से और आगे पूरी रात खड़ा रहा तो उन्हें अपनी image और dignity की चिंता हो गयी. पार्किंग के पुराने वाले incident में लापरवाही देखते हुए ही break up जैसी चीज़ को मैंने आगे किया और उन्होंने भी उसे follow किया. हो सकता है आप सोच रहे हों की इतनी सी बात में break up जैसा कठोर निर्णय? तो शायद आपके लिए ये जानना बेहतर होगा कि, मोहतरमा को मेरा मोबाइल देखने का बड़ा शौक है, कोई भी msg आये तो सबसे पहले उन्हें देखना है कि किसका है. कोई कॉल आये तो उन्हें सबसे पहले इत्तिलाह करनी होती थी कि फलां का कॉल है. हालाँकि इससे मुझे रत्ती भर भी परेशानी नहीं थी. हाँ, उन्हें एक विशेष नंबर से मेरे मोबाइल पर आने वाले कॉल और msg से चिढ थी. तो मैं भी उस नंबर को ignore करता था. ज़ाहिर सी बात है कोई न कोई पुराने थिगड़े आपके कपड़ों पर लटक ही जाते हैं, तो मैडम के केस में भी एक नंबर ऐसा ही था, जिसको entertain करने पर मेरे नाक-मुँह सिकुड़ते थे. पर शायद उन्हें उस नंबर से कुछ ज्यादा ही मोह था. अब कहाँ हम छोटे शहर के और वो नंबर वाले मेट्रो सिटी के. हम ठहरे civillien और वो इसके opposite . मैडम ने तो एक दिन तो हमारे मित्रों के सामने ये भी कह दिया था कि मेट्रो सिटी कालर ignore नहीं किया जा सकता क्योंकि हमसे पहले कहानी वहां लिखी जाने वाली थी. मैंने इस बात पर नहीं टोका, मुझे लगा कि धीरे-धीरे सब सुधर जायेगा. बाद में कई बार इस बात पर बहस होती थी लेकिन बेनतीजा. ये कम पड़ नहीं रहा था, ऊपर से हमारा गुस्सा. न चाहते हुए भी दो-तीन बार हाथापाई की नौबत भी आ गयी. काफी बुरा लगा मुझे और सबसे ज्यादा उन्हें. पर ऐसा नहीं है कि लड़ने के बाद रिश्ते में कोई कमी रह जाये. उसके बाद भी जी-जान से लगे रहते थे कि खुशियाँ बटोरने में कोई कमी न रह जाये. एक हफ्ते पहले शुरू हुई break up की बात को दो-तीन बीते थे, कि एक रात में जब उनके घर में था तो वही मेट्रो सिटी caller रात को ढाई बजे से जो शुरू हुआ तो सवा तीन बजे तक उनके मोबाइल पर रिंग पे रिंग दे. जब मैंने मोबाइल उठाकर देखना चाह तो उन्होंने छीनने की कोशिश की और इस छीना-झपटी में हाथ-पाँव भी चल गए. बात यहाँ से बिगड़ गयी. उस दिन मुझे पता चला कि मैडम का मोबाइल अगर मैं भी उठों तो मैडम को COMFORTABLE feel नहीं होता. अब तक कहीं भी कोई बड़ी बात नहीं हुई है जो वाकई में इतनी बड़ी हो कि अलग हुआ जाये. खैर मैं खुदको सजा दे चुका हूँ, अपने हाथ दीवार पर मार-मार कर उन्हें सुजा दिया है और पूरी रात सर्दी में खड़े रहकर बाकी कसार भी पूरी कर दी. अब भी यही कोशिश कर रहा हूँ कि सारे मसले सुलझ जाएँ, पर उन्होंने कह दिया कि "Things are not working between us." देखिये कोशिश तो पूरी है कि इस बार इतिहास न दोहराया जाये, अगर ऐसा हुआ तो अपनी कहानी फिर अधूरी रह जाएगी और प्यार के इम्तिहान में जीरो से ज्यादा स्कोर नहीं हो पायेगा. हो सकता है आपको सब-कुछ मजाक लग रहा हो लेकिन लिखते वक़्त उँगलियों और दिल का दर्द मैं जानता हूँ.
शुक्रवार, 15 जनवरी 2010
जाना तो नहीं चाहता लेकिन फिर भी चला जा रहा हूँ...
आधी रात के घने कोहरे और ठिठुरन भरे माहौल में भागती ट्रेन की सीटी और इसके पहियों की आवाज़ सन्नाटे को चीरते हुए पटरी के आस-पास बने घरों से टकरा रही थी.इस वक़्त ट्रेन की आवाज़ सुनकर लग रहा था मानो, कड़कड़ाती ठण्ड ने उसके दांत जमाँ दिए हों और वो गर्माहट पाने के लिए गुहार लगा रही हो. अभी थोड़ी देर पहले ही मैं पटरी के पास वाले घर पहुंचा था और इस ख्याल में डूबा था कि व्यर्थ अहंकार, अभिमान और नासमझी के बादलों से होने वाली हलकी-फुल्की बूंदा-बंदी जब तेज़ बारिश की शक्ल अख्तियार करती है तो प्यार और अपनेपन की ज़मीन में पनपने वाले रिश्ते उसमें या तो डूब जाते हैं या फिर बह जाते हैं. दोनों ही स्थिति में नुकसान रिश्तों का होता है और हर नुकसान की भरपाई हो ये मुमकिन भी नहीं है.
स्तब्ध और आंसुविहीन, इससे लाचार हालत और क्या हो सकती है? कुछ छः महीने ही हुए थे उससे मिले हुए और मिलते वक़्त आप कभी बिछड़ने के बारे में नहीं सोचते. वैसे आजतक ये निश्चित नहीं हो पाया कि हमारे रिश्ते की पहल किसने की? मैंने या उसने? लेकिन ये ज़रूर है कि अलग होने का निर्णय मेरा था. दिन, हफ्ते, महीने छोटी-छोटी नोक-झोंक तो होती थीं लेकिन बात यहाँ तक आ पहुंचेगी सोचा नहीं था. "हम दोनों बहुत अलग हैं" कई बार ये सुन चुका था उससे. लेकिन क्या दुनिया मैं हम ही अलग हैं? "मैं ऐसी ही हूँ" ये भी कई बार सुना था और इसके बाद ये भी सुना कि जब तुम्हे मालूम था कि "मैं ऐसी हूँ तो फिर ज़रूरत क्या थी साथ होने की और तुम्हें ये आज ही दिख रहा है कि मैं ऐसी हूँ पहले नहीं दिखा". खैर, आप इंसान से जीत सकते हैं उसके अहंकार से नहीं. वैसे रिश्तों में सही-गलत, हार-जीत जैसा कुछ नहीं होता, जो होता है वो है समझ. मैं उसे समझ तो गया था लेकिन इस उम्मीद के साथ कि शायद उसमें कोई सुधार आएगा. वो खुद में सुधार करने तैयार नहीं थी. जब आप किसी से मिलते हैं तो मिलते ही साथ उससे ऐसा कुछ नहीं कहते कि उसे कुछ बुरा लगे, वरना आपकी अगली मुलाकात उससे होगी या नहीं, ये पक्का नहीं होता. कुछ लोग खुद से बहुत प्यार करते हैं, खुद की हर चीज़ उन्हें बहुत प्यारी होती है. हिटलर को भी अपनी छोटी सी मूंछ से बड़ा प्यार रहा होगा लेकिन किसी ने उसे ये बताने की हिम्मत नहीं की कि वो मूंछ बहुत अजीब लगती थी, अपनी जान किसे प्यारी नहीं होती? बहुत कम लोग जानते हैं कि हिटलर एक बहुत अच्छा "चित्रकार" भी था और paint brush बहुत ख़ूबसूरती से use करना जानता था. खुद के वजूद को कौन नहीं चाहता? पर ये चाहत, उसे चाहने के आड़े आने लगे तो क्या किया जाये? पहले तो आप उसे नज़रंदाज़ करेंगे, फिर अगर कुछ ज्यादा ही महसूस होने लगे तो सुधारने की कोशिश करेंगे और जब सब तरह से विफल हो जाएँ तो हाथ खड़े कर देंगे. लोगों को कहते सुना है "मैं आपके दिल में रहना चाहता हूँ", शायद दिल भी एक घर होता है. आप किस घर में जिंदगी भर रहना चाहेंगे ? एक ऐसा घर जिसकी नीवं कमज़ोर हो, जिसके ज़मीने पत्थर हिले हुए हों या फिर एक ऐसा घर जिसकी नीवं को कोई सुनामी, कटरीना, डैज़ी और भूकंप हिला न सके? नीवं मज़बूत की जा सकती है, जब घर बनना शुरू हुआ हो और मैं ये भी सोच रहा हूँ कि एक कोशिश अभी भी की जा सकती है. जबकि सारे प्रयत्न बेकार जा चुके हैं, आखिरी वाला भी. पूरी रात आँखों में कट गयी और सुबह ने खिड़की पर दस्तक दी. मेरे यहाँ से चलने का वक़्त भी हो गया. मैं जा रहा हूँ, मैंने किसी के आवाज़ देने का इंतज़ार भी नहीं किया और किसी ने मुझे आवाज़ भी नहीं दी. जाना तो नहीं चाहता लेकिन फिर भी चला जा रहा हूँ...
स्तब्ध और आंसुविहीन, इससे लाचार हालत और क्या हो सकती है? कुछ छः महीने ही हुए थे उससे मिले हुए और मिलते वक़्त आप कभी बिछड़ने के बारे में नहीं सोचते. वैसे आजतक ये निश्चित नहीं हो पाया कि हमारे रिश्ते की पहल किसने की? मैंने या उसने? लेकिन ये ज़रूर है कि अलग होने का निर्णय मेरा था. दिन, हफ्ते, महीने छोटी-छोटी नोक-झोंक तो होती थीं लेकिन बात यहाँ तक आ पहुंचेगी सोचा नहीं था. "हम दोनों बहुत अलग हैं" कई बार ये सुन चुका था उससे. लेकिन क्या दुनिया मैं हम ही अलग हैं? "मैं ऐसी ही हूँ" ये भी कई बार सुना था और इसके बाद ये भी सुना कि जब तुम्हे मालूम था कि "मैं ऐसी हूँ तो फिर ज़रूरत क्या थी साथ होने की और तुम्हें ये आज ही दिख रहा है कि मैं ऐसी हूँ पहले नहीं दिखा". खैर, आप इंसान से जीत सकते हैं उसके अहंकार से नहीं. वैसे रिश्तों में सही-गलत, हार-जीत जैसा कुछ नहीं होता, जो होता है वो है समझ. मैं उसे समझ तो गया था लेकिन इस उम्मीद के साथ कि शायद उसमें कोई सुधार आएगा. वो खुद में सुधार करने तैयार नहीं थी. जब आप किसी से मिलते हैं तो मिलते ही साथ उससे ऐसा कुछ नहीं कहते कि उसे कुछ बुरा लगे, वरना आपकी अगली मुलाकात उससे होगी या नहीं, ये पक्का नहीं होता. कुछ लोग खुद से बहुत प्यार करते हैं, खुद की हर चीज़ उन्हें बहुत प्यारी होती है. हिटलर को भी अपनी छोटी सी मूंछ से बड़ा प्यार रहा होगा लेकिन किसी ने उसे ये बताने की हिम्मत नहीं की कि वो मूंछ बहुत अजीब लगती थी, अपनी जान किसे प्यारी नहीं होती? बहुत कम लोग जानते हैं कि हिटलर एक बहुत अच्छा "चित्रकार" भी था और paint brush बहुत ख़ूबसूरती से use करना जानता था. खुद के वजूद को कौन नहीं चाहता? पर ये चाहत, उसे चाहने के आड़े आने लगे तो क्या किया जाये? पहले तो आप उसे नज़रंदाज़ करेंगे, फिर अगर कुछ ज्यादा ही महसूस होने लगे तो सुधारने की कोशिश करेंगे और जब सब तरह से विफल हो जाएँ तो हाथ खड़े कर देंगे. लोगों को कहते सुना है "मैं आपके दिल में रहना चाहता हूँ", शायद दिल भी एक घर होता है. आप किस घर में जिंदगी भर रहना चाहेंगे ? एक ऐसा घर जिसकी नीवं कमज़ोर हो, जिसके ज़मीने पत्थर हिले हुए हों या फिर एक ऐसा घर जिसकी नीवं को कोई सुनामी, कटरीना, डैज़ी और भूकंप हिला न सके? नीवं मज़बूत की जा सकती है, जब घर बनना शुरू हुआ हो और मैं ये भी सोच रहा हूँ कि एक कोशिश अभी भी की जा सकती है. जबकि सारे प्रयत्न बेकार जा चुके हैं, आखिरी वाला भी. पूरी रात आँखों में कट गयी और सुबह ने खिड़की पर दस्तक दी. मेरे यहाँ से चलने का वक़्त भी हो गया. मैं जा रहा हूँ, मैंने किसी के आवाज़ देने का इंतज़ार भी नहीं किया और किसी ने मुझे आवाज़ भी नहीं दी. जाना तो नहीं चाहता लेकिन फिर भी चला जा रहा हूँ...
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