पिछले दो हफ्ते से,
aquarium का पानी,
मटमैला हो गया,
उसके पास,
पानी बदलने का,
वक़्त भी नहीं था,
क्योंकि,
ज़्यादातर,
वो मेरे साथ रहती थी,
अब तो,
मछलियों को भी,
मुझसे इर्ष्या होती है,
तभी तो,
मेरे हाथ से,
खाने का दाना तक,
नहीं खातीं..
ज़िंदा होने का प्रमाण है बेचैनी, विचारों में उथल-पुथल की ज़िम्मेदार है बेचैनी, जीवन को गति देने का काम करती है बेचैनी, परिवर्तन को हवा देती है बेचैनी...
शनिवार, 20 मार्च 2010
सोमवार, 15 मार्च 2010
प्रेरणा
सर्द रातों में,
जब तुम,
शॉवर के नीचे खड़ी होती हो,
तो पानी की बर्फ सी बूंदे,
पड़ती हैं तुम पर,
और फिर चिपक जाती हैं,
दीवारों से,
तुम्हारे दीदार के लिये,
पर तब तक तुम,
तौलिया लपेट कर,
बाहर आ जाती हो,
जहाँ मैं लैपटॉप लिये,
बैठा होता हूँ,
बर्फ बनकर...
जब तुम,
शॉवर के नीचे खड़ी होती हो,
तो पानी की बर्फ सी बूंदे,
पड़ती हैं तुम पर,
और फिर चिपक जाती हैं,
दीवारों से,
तुम्हारे दीदार के लिये,
पर तब तक तुम,
तौलिया लपेट कर,
बाहर आ जाती हो,
जहाँ मैं लैपटॉप लिये,
बैठा होता हूँ,
बर्फ बनकर...
गुमनाम रिश्ता
जिंदगी में बहुत रिश्ते देखे हैं,
बेटे का माँ-बाप से,
भाई का भाई-बहिन से,
दोस्ती का दोस्तों से,
प्रेमी का प्रेमिका से,
इन रिश्तों में,
जब कभी झगड़ा होता है,
तो रिश्तों के दरमियाँ,
लकीर खिंच जाती है,
लेकिन एक रिश्ता ऐसा भी,
देख रहा हूँ,
जहाँ,
तमाम झगड़ों के बावजूद,
न तो मैं लकीर खीच पाया,
न ही वो,
और ताज्जुब की बात ये है,
कि इस रिश्ते का कोई नाम नहीं...
बेटे का माँ-बाप से,
भाई का भाई-बहिन से,
दोस्ती का दोस्तों से,
प्रेमी का प्रेमिका से,
इन रिश्तों में,
जब कभी झगड़ा होता है,
तो रिश्तों के दरमियाँ,
लकीर खिंच जाती है,
लेकिन एक रिश्ता ऐसा भी,
देख रहा हूँ,
जहाँ,
तमाम झगड़ों के बावजूद,
न तो मैं लकीर खीच पाया,
न ही वो,
और ताज्जुब की बात ये है,
कि इस रिश्ते का कोई नाम नहीं...
गुरुवार, 11 मार्च 2010
Comment
मुस्कुराएंगे, शर्मायेंगे, घबराएंगे, धडकनों का इम्तिहां होगा...
उनसे जब सामना होगा, पता नहीं क्या-क्या होगा?
(मेरा एक मित्र अपनी प्रेयसी से मिलने वाला थे पहली बार, उसके FB status को देखकर यही सूझा.)
उनसे जब सामना होगा, पता नहीं क्या-क्या होगा?
(मेरा एक मित्र अपनी प्रेयसी से मिलने वाला थे पहली बार, उसके FB status को देखकर यही सूझा.)
रेस्त्रौं का बिल
तुम्हें पता है कि मैं रेस्त्रौं की पर्चियां क्यों संभाल कर रखता हूँ,
ताकि मुझे वो तारीख याद रहें, जब हम-तुम साथ थे,
ये तो साइंस ने भी पता लगा लिया है कि,
"हम" तारीख याद रखने के मामले में कमज़ोर हैं,
और वैसे भी भूलना तो इंसानी फ़ितरत है,
लेकिन भूले-भटके इंसान की भी ज़रूरत इश्क है,
पर मैं तुम्हें नहीं भूला हूँ,
और ऐसी ही किसी पर्ची पर आकर ठहर गया हूँ...
ताकि मुझे वो तारीख याद रहें, जब हम-तुम साथ थे,
ये तो साइंस ने भी पता लगा लिया है कि,
"हम" तारीख याद रखने के मामले में कमज़ोर हैं,
और वैसे भी भूलना तो इंसानी फ़ितरत है,
लेकिन भूले-भटके इंसान की भी ज़रूरत इश्क है,
पर मैं तुम्हें नहीं भूला हूँ,
और ऐसी ही किसी पर्ची पर आकर ठहर गया हूँ...
पता
जिनके पते पर हम मिला करते थे कभी,
अब वो खुदसे लापता हो गए हैं,
और कुछ इस तरह भी गुम हुए वो लोगों से,
कि अब उनके ख़त हमारे पते पर आते हैं...
अब वो खुदसे लापता हो गए हैं,
और कुछ इस तरह भी गुम हुए वो लोगों से,
कि अब उनके ख़त हमारे पते पर आते हैं...
calling myself....
पूरा दिन निकल जाता है,
दूसरों से मिलने में,
पर कभी खुद से मिलने का,
वक़्त नहीं मिलता,
और जब मिलने की कोशिश करो,
तो वक़्त पूरा नहीं पड़ता,
कल रात खुद से मिलने की जद्दोजेहद में,
पता ही नहीं चला कि रात कब सो गयी,
पर मैं जागता रहा,
खुद से गुफ़्तगू करता रहा,
यहाँ-वहां के किस्से,
और बातें खुद से करता रहा,
यकीन मानो,
किसी और से मुलाकात इतनी मजेदार नहीं थी,
जितनी कि खुदसे...
अक्सर लोगों को कहते सुना था,
कि जब भी खुद का मोबाइल नंबर डायल करो,
तो नंबर बिज़ी ही मिलेगा,
लेकिन कभी खुद के दूसरे नंबर से,
कॉल करके देखना,
बाकायदा रिंग आएगी...
इसे कहते हैं, calling myself....
दूसरों से मिलने में,
पर कभी खुद से मिलने का,
वक़्त नहीं मिलता,
और जब मिलने की कोशिश करो,
तो वक़्त पूरा नहीं पड़ता,
कल रात खुद से मिलने की जद्दोजेहद में,
पता ही नहीं चला कि रात कब सो गयी,
पर मैं जागता रहा,
खुद से गुफ़्तगू करता रहा,
यहाँ-वहां के किस्से,
और बातें खुद से करता रहा,
यकीन मानो,
किसी और से मुलाकात इतनी मजेदार नहीं थी,
जितनी कि खुदसे...
अक्सर लोगों को कहते सुना था,
कि जब भी खुद का मोबाइल नंबर डायल करो,
तो नंबर बिज़ी ही मिलेगा,
लेकिन कभी खुद के दूसरे नंबर से,
कॉल करके देखना,
बाकायदा रिंग आएगी...
इसे कहते हैं, calling myself....
मंगलवार, 9 मार्च 2010
कोशिश
नफ़रत करने के कई बहाने तुम्हें दे दिए,
अब तो मुझे अपनी गिरफ्त से आज़ाद कर,
तुझे भूलने में मैं तो न जीत पाया,
तू अपनी नफ़रत को कामयाब कर...
अब तो मुझे अपनी गिरफ्त से आज़ाद कर,
तुझे भूलने में मैं तो न जीत पाया,
तू अपनी नफ़रत को कामयाब कर...
फ़ितरत
जिनपे गुजरी है उनसे पूछे कोई हकीक़त क्या है?
वो मुस्कुरा के कहेंगे, जाने दो..अब उनसे वास्ता क्या है?
वो मुस्कुरा के कहेंगे, जाने दो..अब उनसे वास्ता क्या है?
मेहनत
कभी सोचा है
किसी रिश्ते को गढ़ने में,
जितना वक़्त लगता है,
उससे कहीं कम,
उसे उधेड़ने में,
लेकिन जो मेहनत,
उधेड़ने में लग रही है,
वही उसे संवारने में होती,
तो,
तो न चेहरे पे शिकन होती,
न दिल में हरारत,
और न ही फ़िज़ूल के ख्याल.
किसी रिश्ते को गढ़ने में,
जितना वक़्त लगता है,
उससे कहीं कम,
उसे उधेड़ने में,
लेकिन जो मेहनत,
उधेड़ने में लग रही है,
वही उसे संवारने में होती,
तो,
तो न चेहरे पे शिकन होती,
न दिल में हरारत,
और न ही फ़िज़ूल के ख्याल.
सोमवार, 8 मार्च 2010
ख्वाहिश
आज सोचा उसे बेवफ़ा का तख़ल्लुस दिया जाये,
चलके किसी तवायफ़ से दिल लगाया जाये,
पर्दा-ए-हुस्न का हुनर तो देख लिया,
अब ज़रा बेपर्दा-ए-हुस्न का तमाशा भी देखा जाये,
यूँ तो सब हकीक़त छुपा के रखते हैं,
पर जिसके पास छुपाने को न हो कुछ,
ज़रा उसकी महफ़िल में भी ठहरा जाये,
चलके किसी तवायफ़ से दिल लगाया जाये...
चलके किसी तवायफ़ से दिल लगाया जाये,
पर्दा-ए-हुस्न का हुनर तो देख लिया,
अब ज़रा बेपर्दा-ए-हुस्न का तमाशा भी देखा जाये,
यूँ तो सब हकीक़त छुपा के रखते हैं,
पर जिसके पास छुपाने को न हो कुछ,
ज़रा उसकी महफ़िल में भी ठहरा जाये,
चलके किसी तवायफ़ से दिल लगाया जाये...
मुक़म्मल
तुम ख़ुद एक ग़ज़ल हो,
तुम्हें किसी मिसरे की ज़रूरत नहीं,
तुम अपने आप में मुक़म्मल हो,
तुम्हें किसी शे'र की ज़रूरत नहीं...
तुम्हें किसी मिसरे की ज़रूरत नहीं,
तुम अपने आप में मुक़म्मल हो,
तुम्हें किसी शे'र की ज़रूरत नहीं...
लहज़ा
कल रात माँ से ऊँची आवाज़ में बोल पड़ा,
और वो धीमे लहज़े में बात करती रहीं,
जब से होश संभाला है,
उसके बाद पहली बार ऐसा हुआ,
काफी बुरा लगा मुझे,
अब सोच रहा हूँ कि,
होश न संभालता तो ही अच्छा था...
sorry माँ,
पर मेरी माँ बहुत अच्छी हैं,
वो मुझसे नाराज़ ही नहीं होतीं...
और वो धीमे लहज़े में बात करती रहीं,
जब से होश संभाला है,
उसके बाद पहली बार ऐसा हुआ,
काफी बुरा लगा मुझे,
अब सोच रहा हूँ कि,
होश न संभालता तो ही अच्छा था...
sorry माँ,
पर मेरी माँ बहुत अच्छी हैं,
वो मुझसे नाराज़ ही नहीं होतीं...
सुरूर
मय' जब हलक से उतरती है,
तो अलफ़ाज़ उसमें तैरने लगते हैं,
जो ख्याल दिन में आके जल जाते हैं,
वो रात में पन्नों पर उतर जाते हैं...
तो अलफ़ाज़ उसमें तैरने लगते हैं,
जो ख्याल दिन में आके जल जाते हैं,
वो रात में पन्नों पर उतर जाते हैं...
बुधवार, 3 मार्च 2010
and the award goes to....
Blog of the month for February 2010
बेचैनी के सभी पाठकों और Blog of the month foundation को बहुत-बहुत धन्यवाद.
बेचैनी के सभी पाठकों और Blog of the month foundation को बहुत-बहुत धन्यवाद.
मंगलवार, 2 मार्च 2010
मंज़र
कहते हैं आँखों देखा भी यकीन के काबिल नहीं होता,
ये कहकर खुदको तसल्ली देना ठीक है...
पर ज़रूरत क्या है देखने की,
जब देखना ही तकलीफ देने लगे...
ये कहकर खुदको तसल्ली देना ठीक है...
पर ज़रूरत क्या है देखने की,
जब देखना ही तकलीफ देने लगे...
सोमवार, 1 मार्च 2010
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