मंगलवार, 28 जुलाई 2009

सच में तू बड़ा हो गया है...पहली किश्त

मैं ऑफिस जा रहा हूँ कुछ लाना है क्या? मैंने माँ से पूछा।माँ ने कहा " हाँ, नानी की दवाई और नाना-नानी के लिए टोस्ट और बिस्कुट, चाय के साथ लेने के लिए। गाँव भेजना है। मैंने हाँ में सर हिला दिया। माँ ने पूछा "पैसे दूँ?" मैंने कहा "हैं मेरे पास।" माँ मुस्कुरा दीं और बोली "बड़ा हो गया है तू" मैं कुछ नहीं बोला, मैं भी मुस्कुराया और बाइक उठाकर चल दिया। माँ के कहे हुए लफ्ज़ कान की दीवारों से टकराकर दिमाग के उसे कोने से जाकर टकरा गए, जहाँ कुछ यादें एक-दूसरे की गोद में सिमटी हुई थीं। उसी में से एक याद उठ खड़ी हुई और उसने आंखों की तरफ़ तेज़ी से दौड़ना शुरू किया, मैंने बाइक की रफ़्तार कम कर ली। अब तक वो याद मेरी आंखों में रफ़्तार पकड़ चुकी थी, और जहाँ से वो शुरू हुई वो दिन था 8 दिसम्बर 2006, सुबह-सुबह मेरे बिस्तर के बाजू में रखा मेरा मोबाईल बजा, पिताजी का कॉल था, कह रहे थे कि "भैया" का कॉल आया था, इस नम्बर से (उन्होंने मुझे नम्बर दिया।) भैया कह रहा था कि काम कुछ अच्छा सा नहीं लग पाया है, फिर भी कोशिश में हूँ कि अच्छा काम लग जाए। जबलपुर आने का फिलहाल कोई मन नहीं है। तुम इस नम्बर का पता करो, कहाँ का है? उसको लेकर आओ, तुम्हारे ताऊ जी कह रहे थे कि वो भी हाथ बटायेंगे सब ठीक करने में। पापा के पास भैया का ये पहला कॉल था उनके जबलपुर से जाने के बाद. मैं बिना देर किए बिस्तर से उठा, माँ को पूरी बात बताई। पापा का बताया हुआ नम्बर पता किया तो वो नागपुर का निकला, आज मैं सतना जाने वाला थे एक NGO के साथ ठेकेदारी का काम सँभालने, उसी के ज़रिये मैं अपने भाई की मदद करना चाहता था। आज जाने के लिए आठ बैग और सूटकेस के साथ पूरी तैयारी थी मेरी। माँ ने एक बैग में दो जोड़ी कपडों के साथ एक चादर रख दिया मेरे ओढ़ने के लिए। मैंने भैया के कुछ पोस्टकार्ड साइज़ फोटो रख लिए। मेन रोड पर खड़े होकर बस का इंतज़ार करने लगा, थोड़ी देर में नागपुर जाने वाली बस आ गई, मैं उस पर सवार हो गया। मैं निकल पड़ा था उस सफर में जहाँ मुझे अपने बड़े भाई तक पहुंचना था, मेरा सगा भाई जो मेरे लिए मेरा दोस्त, मेरा हमराज़, मेरा भाई सब कुछ... वो लगभग आठ महीने से लापता था, आखिरी बार मुझे मेरे दैनिक जागरण वाले ऑफिस में मिला था। उस दिन वो काफ़ी परेशान था, जब वो ऑफिस आया तो बोला, "अपनी घड़ी दे, मेरे जूते तू पहन ले और अपने जूते दे, साथ में ये मोबाईल रख बैट्री ख़त्म हो गई है इसकी। मुझे शहर का मैप बनाना है, प्रोजेक्ट के लिए। " मैंने उससे कहा, कि लूना ले जाए साथ में।" तो कहने लगा कि काम में मुश्किल होगी। मैंने कहा ठीक है, वो चला गया। रात को मैं घर पहुँचा, तब तक वो नहीं आया था। देर रात तक नहीं आया, सुबह भी नहीं आया, उसका कोई कॉल भी नहीं आया। रात से मैं और मेरी माँ परेशां थे, पिताजी उस वक्त शहर के बाहर पोस्टिंग पर थे हलाँकि उन्हें भी बता दिया था इस बारे में। दोपहर में पुलिस थाना जाकर भैया के गुम होने की रिपोर्ट दर्ज करायी। उसके बाद से आज तक बस उनके आने का इंतज़ार ही कर रहे थे। मेरे भाईसाहब की किस्मत बहुत अच्छी नहीं थी, क्योंकि उन्होंने जितने भी काम किए उनमे खूब मेहनत की पर फायेदे के अलावा सब कुछ हुआ। मशरूम प्रोडक्शन, अगरबत्ती प्रोडक्शन, साइबर कैफे किसी में भी फायदा नहीं हो पाया। उल्टा क़र्ज़ में डूबते गए और क़र्ज़ लौटाया भी दस टके के ब्याज पर, अब तक वो दूसरो का पैसा दुगना कर चुके थे। फिर भी सूदखोर उनका पीछा नहीं छोड़ रहे थे, बात अब घर तक आने लगी थी। भैया काफ़ी हताश हो चुके थे। शायद इसलिए घर छोड़ दिया, हम लोगों को परेशानी न हो इसलिए आज तक घर से कोई कांटेक्ट भी नहीं किया। दोपहर से चला शाम को नागपुर पहुँचा, वहां पहुंचकर उसी नंबर पर फ़ोन किया, उसने बताया कि ये गणेश पेठ एरिया का नम्बर है। मैं भैया की फोटो लेकर उस जगह पहुँचा और लोगों को दिखाकर पूछने लगा उनके बारे में। एक दुकान में, एक बन्दा शेविंग करवा रहा था, फोटो देखकर बोला कि "ये भैया तो रोज़ मेरी दूकान के सामने सुबह नौ बजे निकलते है, बहुत अच्छे कपड़े पहनते हैं। हाथ में एक बड़ी घड़ी भी पहनते हैं। लाल रंग के बाल हैं। पर कभी किसी से बात करते हुए नहीं देखा। आप कल आ जाओ मेरी दुकान पर, वहां मिल लेना इनसे।" मैं कल होने का इंतज़ार करते हुए वहां पास के एक लोंज में जाकर रुक गया। बस यही सोच रहा था कि सवेरा कितनी जल्दी हो जाए।

रविवार, 26 जुलाई 2009

और एक बार फिर मेरी मौत हो गयी...

क्या सोचने लगे जनाब? यही कि इंसान तो एक ही बार पैदा होते है और एक ही बार मरता है लेकिन यहाँ पर "एक बार फिर मेरी मौत हो गयी" सोच कर अजीब लग रहा है? वैसे अगर लिखने वालों की बात करूँ तो ये कहना एकदम सही है कि ये मरते नहीं हैं, इनकी आत्मा किताब के पन्नो के बीच में दबी होती है और जैसे हो कोई उस पृष्ठ को खोलता है आत्मा बाहर आ जाती है। खैर, "मैं "अभी अपने शरीर में ही हूँ। एकदम सही सलामत, पर ये जो "मैं" है न, इसने खासा परेशां करके रखा है मुझे। ये "मैं " ही हर बार दम तोड़ देता है, कल रात भी ऐसा ही हुआ। फर्क इतना था कि कल रात I committed suicide और मैंने किया भी। और कल से पहले कई बार मैं बिना suicide के मारा गया। पर सवाल ये उठता है कि मैं मरता हूँ और फिर जिंदा हो जाता हूँ, कैसे? मेरा जीवन किसी पौधे के बीज की तरह है, जो एक जिंदगी के साथ धीरे-धीरे अंकुरित होता है। ये सच है कि मैं एक ही बार पैदा हुआ हूँ पर मौत कई बार हुई है। आज से कुछ साल पहले मेरे ह्रदय में मेरे बड़े भाई के लिए स्नेह का बीज जो था वो उसकी मृत्यु के पश्चात नष्ट हो गया। ये मेरी पहली मृत्यु थी। हाँ, अंश बाकी हैं अभी भी। उसके बाद फिर से किसी ने प्रेम का बीज बोया, उसका अंकुरण हो ही रहा था कि वो भी नष्ट हो गया, ये दूसरी बार मौत हुई। तीसरी बार तब जब पिता के सपनों को पूरा करने में असमर्थ रहा, चौथी बार फिर से प्रेम का अंकुरण हो ही रहा था कि वो संक्रमण का शिकार हो गया, इस प्रेम के अंकुरण पर अभी एक बात याद आ रही है। वो है एक फ़िल्म का संवाद, "लव आजकल" जिसमें ऋषि कपूर सैफ अली खान से कहते हैं, "सच्चा प्यार एक वार ही हुंदा है राजे" तो सैफ कहता है "मुझे तो कम से कम पंद्रह बार हो चुका है।" क्यों नहीं हो सकता यार, प्रकृति से सीखो... क्या धरती पर एक नस्ल के ढेर सारे पौधे नहीं हैं? हैं न! क्या कोई चीज़ दुबारा नहीं हो सकती? बेशक हो सकती हैं, भले ही एक जैसी न हो पर हो ज़रूर सकती है। खैर, बात करें अगली मौत की तो एक बहुत अजीज़ मित्र के जाने पर फिर से मौत हुई मेरी, और कल रात जब मेरे अस्तित्व को नकारा गया तो फिर मेरी मौत हो गयी। मेरी जिंदगी से जब-जब कोई जाता है, तब मेरी मौत होनी है ये मुझे मालूम है। क्योंकि मेरा जीवन इन सबसे जुडा हुआ है। मुझे मरने से बिल्कुल परहेज नहीं है क्योंकि मरने के बाद जो मेरा फिर से जन्म होता है वो पिछले से बेहतर होता है क्योंकि जिंदगी के लिए फिर से नया कुछ होता है। फर्क इतना है कि मैं अपनी पुरानी मौतें नहीं भूलता। मरने पर तकलीफ तो होती है पर हर तकलीफ में एक सबक होता है। फिर जिन्दा होता हूँ मैं मरने के लिए। इस मौत से मैंने क्या सबक लिया पता? यही कि अब मेरी अगली मौत इस वाली से अलग होगी और दुबारा मैं एक ही मौत नहीं मरूँगा। हालाँकि इतनी मौतों पर मेरी हालत कुछ ऐसी है जैसी इस शेर में कही गयी है....

मैं अपने ज़रफ से गिरता नहीं हूँ,
समंदर हूँ, कोई कतरा नहीं हूँ,
ये कहदो जाकर शहर वालों से,
मैं टूटा हूँ अभी, बिखरा नहीं हूँ...

(मजीद शोला की एक क़वाल्ली से)

शनिवार, 25 जुलाई 2009

बेवकूफ बादल

आज जब सीढ़ियों से मैं नीचे उतर रहा था, तो मेरे जूतों की हर एक ठक-ठक सीने में हथौड़े की तरह लग रही थी। वैसे तो मैं कई दफा अकेले ही सीढ़ियों से उतरा हूँ पर आज ये अकेलापन इस हद तक बढ़ गया कि जूतों की ठक-ठक मुझ पर एक ताना सा लग रही थी। " रह गए न अकेले, बेवकूफ" हर ठक पर यही ताना निकलता। इंसान ये कहकर ख़ुद को ढाढ़स बंधा सकता है कि अकेले आये हैं और अकेले जाना है तो फिर अकेले रहने से परहेज क्यों? खैर, अब तक वो जूतों की ठक-ठक मेरे ज़हन में गूँज रही है और ऐसा महसूस हो रहा है जैसे किसी ने भरे चौराहे में अपनी गन्दी गालियों से मुझे पानी-पानी कर दिया और मैं कुछ नहीं कर पाया। अब भाई, इंसान पर ख़ुद का ज़ोर नहीं चलता तो दूसरो पर क्या चलेगा? आप दूसरों को थप्पड़ मारकर आपके साथ रहने पर मजबूर तो नहीं कर सकते। दूसरों का भी अपना मन है जो किसी और के साथ रहने में ज़्यादा खुश रहता है। मेरे ख्याल से नजदीकियां इतनी हों के आप हाथ बढ़ा कर फासले को मिटा सकें लेकिन दुनिया में कोई नाप-तौल कर दोस्ती, मोहब्बत या रिश्तेदारी जैसे ताने-बाने नहीं बुनता और न ही किसी ने ऐसी नाप बनायी है। पर तब क्या जब कोई फासला ही न हो और नज़दीकियाँ इतनी जैसे बारिश की बूँद और बादल। बादल भी तो कितने वक्त तक बूँद को संभालकर रखता है, एक दिन वो बूँद भी उससे जुदा हो जाती हैं और जाकर मिल जाती हैं ज़मीन से। तकलीफ तो शायद उसे भी होती होगी, होती है शायद तभी तो कितनी ज़ोर से गरजता है बारिश के दौरान जब बूँद उससे दूर होती हैं। कभी-कभी तो बादल का गुस्सा ज़मीन पर भी बिजली बन फूट पड़ता है, इसी गम में कई महीनों तक आसमान से भी गायब हो जाता है बादल, कभी अगर आता भी है तो उस बूँद को देखने की कोशिश में थककर सो जाता है आसमान में ही और हवा उसे कहीं और बहा ले जाती है। वक्त बीतता है और फिर वही सिलसिला शुरू हो जाता है, बूँद उसके इतना नज़दीक आती है कि उसमें समां जाती है और एक दिन फिर छोड़ जाती है....तन्हा! क्या बूँद को भी बादल की याद आती होगी। शायद नहीं, क्योंकि वो तो बूँद है। जिस पर पड़ती है बिखर जाती है, ऐसे जैसे अपनी बाहें फैला दी हो उसने। बादल भी तो "बेवकूफ" है। जब मालूम है बूँद को जाना है तो सहेजता क्यों है उसे? मेरे ख्याल से बेचारा अकेले रहने से डरता है! मेरी तरह....

ये शायद मैं हूँ...

तेरे सवालों पर मेरी चुप्पी, तुमसे बहुत कुछ कहती है,
पर आज तक क्या कोई खामोशी को लफ्जों में समझ पाया है?

तेरे गुस्से पर मेरी आंखों की नमी, सावन का बादल बनकर बरसती है,
पर आज तक कौन सा बादल, धरती की तपिश को बुझा पाया है?

तेरे तकरार पर मेरे दिल की बेचैनी, ज्वर-भाटा सी घटती-बढती है,
पर आज तक कौन है जो, इससे उबर पाया है?

तेरे नफरत करने के अंदाज़ पर, एक शेर जुबां पर आया है,
पर ये शायद मैं हूँ, जो चुप रहकर ही इसे बयां कर पाया है।

मंगलवार, 21 जुलाई 2009

दूसरी दुनिया बनाने की तैयारी



आप हमेशा खुश नहीं रह सकते, रहना भी चाहें तो वो आपको रहने नहीं देगी। वही जिसे हम सब जिंदगी कहते हैं। सुबह आपके चहरे पर मुस्कराहट हो और दोपहर होते ही वो आंसुओं में बदल जाए, ऐसा होता है। बारिश के मौसम को गौर से देखिये, कब धूप निकल आएगी, कब बादल घिर आयेंगे और बरसने लग जायेंगे; सही-सही तो मौसम भविष्यवक्ता भी नहीं बता पाएंगे। खैर, अभी जब मैं ये लिख रहा हूँ तो आसमान में बड़ी तीखी वाली धूप खिली हुई है, बारिश वाली धूप जो बहुत चुभती है एकदम यादों की तरह। ऐसी यादें जो हैं तो बहुत प्यारी, जिन्हें आप याद करके सबके साथ खुश भी हो सकते हैं और अकेले में रो भी सकते हैं। बादल भी रोते हैं पर उनके रोने को हम बारिश कहते हैं, किसकी याद में रोते हैं ये तो नहीं मालूम पर इतना मालूम है कि शायद धूप भी उन्हें मीठी यादों की तरह चुभती होगी तब आंसू निकल आते होंगे। आज जब स्टूडियो की खिड़की से देख रहा था तो थोड़ा उदास था क्योंकि एक साथ बहुत सारे लोगों कि कमी अचानक से महसूस कराने में जिंदगी जुटी हुई थी। पहले बूंदा-बंदी और फिर ज़ोरदार बारिश भी शुरू हो गई थी, स्टूडियो के बाहर बादल बरस रहे थे और अन्दर मेरी आँखें। बादलों का तो नहीं पता पर मुझे अपना दोस्त याद रहा था, "विकास"। थोड़ी देर के लिए ही सही, मैं स्वार्थी हो गया था। यही सोच रहा था कि वही क्यों, मैं क्यों नहीं। कुछ साल पहले मेरा बड़ा भाई और अब कुछ दिन पहले मेरा दोस्त। दोनों एक ही जगह चले गए, दोनों का स्नेह तो मेरे लिए था पर टेलेंट दुनिया के लिए और मुझे ये भी लगता है कि दोनों जिस जगह पर हैं, वहां से मेरी जिंदगी बनाने में कोई कसर नहीं छोडेंगे। जिस ऊपर वाले ने उन्हें बुलाया है उसकी नाक में ज़रूर दम करेंगे और थक-हारकर दुनिया को चलाने वाला भी उनके इशारों पर चलेगा। जो लोग उन दोनों को जानते हैं वो मेरी बात से ज़रूर सहमत होंगे। कभी-कभी ऐसा लगता है कि दुनिया चलाने वाला इस दुनिया के हाल और हालत से बड़ा खुश है तभी तो ऐसे दो लोगों को अपने पास बुला लिया जो उसकी सल्तनत के लिए खतरा थे। दोनों के गजब का जोश पूरी दुनिया पर भारी पड़ने वाला था। इस दुनिया की सल्तनत का मालिक बड़ा डरपोक है और स्वार्थी भी। मेरा ख्याल तो आया ही नहीं, तन्हा कर दिया। अब ऐसा कोई नहीं है जो मेरे साथ स्याह रात में वक्त बे वक्त निजी जिंदगी से लेकर दुनियादारी की बातों पर चाय की भाप और सिगरेट का धुँआ उड़ा सके। किससे उम्मीद करूँ, इस दुनिया का मालिक तो अपनी ही बनाई बेशकेमती चीज़ों का कलेक्शन करने में लगा हुआ है। शायद इस दुनिया को मिटाने के पहले अपनी कुछ नायाब चीज़ों को समेटकर दूसरी दुनिया बनने की तैयारी में लगा है वो। पर इतनी भी क्या जल्दी है इस दुनिया को मिटाने की, कि हम लोगों के आंसू देखने की भी फुर्सत नहीं है उसे?

रविवार, 19 जुलाई 2009

" अबे ! सुनो हम जा रहे हैं, तुम अपना ख्याल रखना। bye "


कल रात हवाएं बहुत तेज़ चल रही थी, बैचेन थीं शायद। हवाओं की बैचेनी से झलक रहा था, जैसे किसी बात को कहने की बहुत जल्दी हो। मौसम भी अचानक ही बदल गया था, मैं नर्मदा तट से लौट रहा था, तभी जेब में रखा मोबाइल बजा। मेरे मित्र अंसारी जी का कॉल था,कहने लगे कि गाड़ी किनारे लगाओ पहले, मैंने वैसा ही किया। उसके बाद जो उन्होंने कहा उस पर मैं कोई प्रतिक्रिया नही दे पाया। क्योंकि उसे वक्त मेरी एक मित्र गाड़ी पर मेरे पीछे बैठी हुई थी। उसके जन्मदिन पर बस दीपदान करके ही लौट रहे थे। थोड़ी दूरी पर मेरा एक और मित्र मिल गया और अगले एक घंटे में मेरी मित्र का जन्मदिन मनाया जा चुका था और उस एक घंटे में मेरे पास ऐसा कितने ही फ़ोन काल्स आ चुके थे, जिन पर मैं कोई भी प्रतिक्रिया नहीं दे पा रहा था। पहली बार बहुत अक्षम सा महसूस हो रहा था। कुछ देर बाद अपने दोनों मित्रों को छोड़ने बाहर आया, आसमान में देखा तो लाल बादल छाये हुए थे, जैसे ताज़ा खून अभी किसी ने आसमान में बिखेर दिया हो। हवाएं और तेज़ हो चली थीं, जैसे किसी बात को कहने के बाद बेचैनी और बढ़ जाती है ठीक वैसे ही हवाएं और बेचैन हो उठी थीं। मैं ऊपर अपने मित्र के फ्लैट में पहुँचा, थक के बैठक के बिछौने में ही बिखर गया। हवाएं बहुत तेज़ हो चुकी थीं, ऐसा लग रहा था, जैसे खिड़की-दरवाज़े तोड़कर घर में दाखिल होना चाहती हो। अब भी किसी बात की बैचेनी हवाओं की सरसराहट में महसूस कर सकता था मैं। कुछ देर बाद मेरी मित्र ने मेरे चहरे पर आते-जाते हुए भावों को देखकर जानना चाहा की मुझे क्या हुआ है? मैं तो सही सलामत था, लेकिन मेरा अभिन्न मित्र, विकास परिहार अब इस दुनिया में नहीं है। भोपाल में थोड़ी देर पहले शाम को उसकी एक सड़क हादसे में मौत हो गई। ये वही व्यक्ति है जो अपनी स्पष्टवादिता, साहित्यिक ज्ञान, मेहनत, लगन, लिखने की अद्भुत कला, अपनी अद्वितीय हिन्दी ब्लॉग्स, बड़े भाई के लिए किए गए अपने सपनों के त्याग(जिसे सिर्फ़ मैं जानता हूँ), तीखी प्रतिक्रियाओं और न जाने कितनी ही विस्मयकारी प्रतिभाओं के लिए जाना जाता था। अपने परिवार, मित्र गण और जानने वालों के साथ-साथ साहित्य जगत को भी अपनी कमी से भर जाने वाला मेरा मित्र, अब सिर्फ़ इन्टरनेट के ब्लॉग्स, पत्रकारिता की उत्तरपुस्तिकाओं, रेडियो पर आने वाले अपने शो की पुरानी रिकॉर्डिंग (93.5 sfm jabalpur में DD यानि धर्मध्वज संकटमोचन नारायण प्रसाद सिंह पाण्डेय धरमवीर कुमार चक्रवर्ती शर्मा उर्फ़ DDSM NPSM DKCS नाम से पूरा पर आधा अधुरा कहने वाला रेडियो जौकी, तफरीह जंक्शन में मेरे साथ कभी शो किया करता था। ) , लोक सेवा आयोग की मुख्य परीक्षा में शामिल होने वाले प्रतियोगियों की लिस्ट और सोशल नेट्वर्किंग साइट्स की प्रोफाइल्स में रह गया था। हम दोनों एक-दूसरे को पिछले चार साल से जानते थे, रेडियो में आने से पहले दोनों के बीच की understanding तो अच्छी थी लेकिन chemistry बिल्कुल नहीं थी, जिसकी दरकार रेडियो में थी। बहुत जल्द chemistry भी बन गई। रेडियो के श्रोता हम दोनों की शो में होने वाली नोक-झोंक को बहुत पसंद करते थे। मेरा दोस्त कहता था कि उसका राजयोग लिखा है, हम दोनों एक साथ ही नौकरी करते एक साथ ही छोड़ते। ज्यादातर लोग हम दोनों को नौकरी छोड़ने के लिए जाने जाते थे। उसके कहने पर ही रेडियो पर मैं आया, आज उसका अहसानमंद हूँ कि उसकी वजह से शहर के लाखों लोग मुझे जानने लगे हैं। पर जब भी मैं उसे यही अहसान वाली बात कहता तो चिड कर कहता, तुम अपनी प्रतिभा की वजह से यहाँ हो। खैर, प्रतिभा की बात ठीक है लेकिन अगर उसने मुझे इंटरव्यू की सूचना नहीं दी होती तो मैं अभी किसी अखबार की नौकरी बजा रहा होता। रेडियो की जॉब भी उसने शायद ही पूरे एक साल की होगी, नौकरी छोड़ कर वो लोक सेवा आयोग की परीक्षा की तैयारी करने लगा था, पहली परीक्षा तो उसने बिना कोचिंग के निकाल चुका था, मुख्य परीक्षा के लिए कोचिंग करने भोपाल में कुछ दिनों से था। नर्मदा से लौटते हुए अपनी मित्र से बस उसकी ही बात कर रहा था, कि मेरे पास अंसारी जी का फ़ोन कॉल आ गया....... कल रात जब कोई आहट होती तो ऐसा लगता कि "विकास" आकर कहने वाला हो - " अबे ! सुनो हम जा रहे हैं, तुम अपना ख्याल रखना। bye "





विकास उर्फ़ Rj DD तफरीह जंक्शन शो में






विकास उर्फ़ Rj DD तफरीह जंक्शन शो के दौरान मेरी चोटी (शिखा) को खीचते हुए। मस्त टाइम था वो।


विकास परिहार के कुछ ब्लॉग्स
http://ishamammain.blogspot.com/
http://swasamvad.blogspot.com/

विकास परिहार के सोशल नेट्वर्किंग प्रोफइल्स
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विकास परिहार की एक रचना :
Tuesday, October 23, 2007

ऐ मौत मुझे ले चल

दिल में उथल-पुथल है,
मन में मची है हलचल।
ऐ मौत मुझे ले, ऐ मौत मुझे ले चल।

स्वस्म्वाद से...



विकास परिहार दाहिने से दूसरा (खड़े हुए)


श्रद्धांजलि .......

शनिवार, 18 जुलाई 2009

मैं झूठ हूँ....

सच तो ये है कि मैं झूठ हूँ। झूठ बड़ा या छोटा नहीं होता, बस झूठ होता है। बिल्कुल मौत की तरह, जैसे मौत छोटी या बड़ी नहीं होती, वैसे ही। किताब की मानिंद ख़ुद को उलट-पलट कर देखा, तो यही महसूस हुआ कि इस किताब को नए सिरे से लिखने की ज़रूरत है पर इस किताब का क्या होगा जो लिखी जा चुकी है। हर पन्ने पर आड़ी-तिरछी लकीरों से बने शब्दों में कोई न कोई कहानी है, जो किसी से छुपी नहीं है। अब अगर सच को सामने लाना भी चाहूँ, तो पहाडों को काटने जितनी मेहनत करनी पड़ेगी। अगर चाहूँ कि कुछ पन्ने फाड़ कर फ़ेंक दूँ, तो वो खाली जगह देखकर हमेशा उनकी कमी महसूस होगी। सच कहूँ तो झूठ में जीना भाले की नोक पर करतब करने के जैसा होता है, ज़रा सी चूक और आप ख़त्म, ये सच है कि अपनी सहूलियत के मुताबिक ही लोग अपनी जिंदगी का रास्ता चुनते हैं। पर चुना हुआ रास्ता हमेशा आपको सही लगे ये आपके लिए सही साबित हो और अगर हो भी जाए तो आपका ज़मीर नाम का भूत आपके सामने आकर आपको प्रताड़ित करने लगता है। मैं भी प्रताड़ित हो रहा हूँ, अपने झूठ की वजह से। अगर मैं अपने झूठ पर कायम रहूँगा तो मेरे जीवन पर कोई असर नहीं पड़ने वाला और अगर सच को चुनता हूँ, तो पता नहीं अंजाम क्या होगा। वैसे मैं गाँधी की तरह सत्य के प्रयोग करने में विश्वास नहीं करता। क्योंकि सत्य का आप क्या प्रयोग करेंगे, सत्य तो आपको परखता है की आप कितने सच्चे हैं। अगर इंसान सोचना शुरू करते तो सभी इसी पेशो-पेश में पड़ जायेंगे कि कौन सी राह अख्तियार करें। सच ये भी है कि, झूठ होते हुए सच लिखना मुश्किल है। फिर भी इस मुश्किल को आसान करना उतना ही कठिन है, जितना ख़ुद में सरल हो जाना और सरल होने के लिए सच होना ज़रूरी है। मैं सरल होने कि कोशिश कर रहा हूँ.....

गुरुवार, 16 जुलाई 2009

प्यास

बारिश का दिन और पानी ही पानी....
फिर भी प्यास है कि बुझती नहीं..

मंगलवार, 14 जुलाई 2009

मेरा यकीन...

अपने यकीन को ख़ुद से सरकने मत देना,
यूँ किसी पर हुआ तो, गिर जाएगा।

सरप्राइज़...

ऑफिस में पहली दफा उसे कब देखा था, ये तो उसे भी मालूम नही था। पर मुझे याद है, जिस दिन मेरा इंटरव्यू था। 8 मार्च, यही तारिख थी। खैर, मैं उस इंटरव्यू में अपने दोस्त के कहने पर ही गया था। मेरे दोस्त के कॉल की वजह से सुबह जल्दी उठाना पड़ा, वरना धूप के दस बजने से पहले अपनी सुबह उस वक्त नही होती थी। इंटरव्यू में शहर के बड़े-बड़े दिग्गज आए थे, कोई न्यूज़ रीडर , कोई वॉईस ओवर आर्टिस्ट और कोई बड़ा पत्रकार। ये सारे बड़े -बड़े लोग जिस जॉब के लिए आए थे, वो भी छोटी नही थी...रेडियो जौकी का जॉब। मनोबल थोड़ा डगमगा गया था मेरा और वैसे भी मेरा टारगेट नौकरी करना नही था। मैं सिर्फ़ अपने दोस्त की जुबां पूरी करने आया था। सबसे आखिरी में मेरा नम्बर आया और सम्भावना भी दिखाई दी की ये जॉब मुझे मिलना है। इंटरव्यू से कुछ देर पहले उसे जाते हुए देखा था, चेहरा तो नही देख पाया था और देखने का कोई ख्याल भी नही था। 11 मार्च को रेडियो स्टेशन से कॉल भी आ गया ज्वाइन करने के लिए। वहां पहुँचा तो पूरी टीम से मुलाकात हुई, और इंटरव्यू के दिन जिसे जाते हुए देखा था, वो भी सामने बैठी हुई थी। सच कहूँ तो अभी तक भी कोई ख्याल मेरे सिर से नही टकराया था। हमारा स्टेशन 19 मार्च को लॉन्च हो गया था, तीन दिन बाद 21 मार्च आ गया, वही दिन जो अल्लाह मियां ने हमारे मिलने को मुकरर कर रखा था। रेडियो लॉन्च होने के बाद से हर रोज़ मोबाइल पर बात हुआ करती थी, उसे मेरे शोज़ पसंद आते थे और उस बारे में ही बात हुआ करती थी। पर 21 मार्च के बाद से बात करने का सलीका भी बदल गया। मैंने उससे कह रखा था की मैं मुसलमान हूँ, तब उसने कुछ नही कहा, वो वैसे ही मुस्कुराकर मेरे गले में बाहें डाले मेरे सिर के लंबे बालों को, घनी दाढी-मूछों को टकटकी लगाकर देखा करती। मेरे सिर पर एक काली रूमाल सफ़ेद धब्बों वाली बंधी हुआ करती थी। उसे में दिखने में भी अच्छा लगता था। मैं उसके जन्मदिन पर एक सरप्राइज़ देने का भी वादा किया था। 31 march की शाम जब वो घर जा रही थी तो उसके हैंडबैग में चुपके से एक तोहफा रख दिया, जिसकी ख़बर उसे रात बारह बजे उसके घर पहुँच कर दी, वो पहला सरप्राइज़ था। दूसरा सरप्राइज़, उसी दिन यानी एक अप्रैल, जन्मदिन की शाम को होटल की टेबल पर आइस क्रीम खाते हुए....मैंने उससे कहा " मैं मुसलमान नही हूँ।" उसकी आँखें खुशी से भर गई, कहने लगी "मेरे मम्मी-पापा, एक मुसलमान से मेरी शादी के लिए राज़ी नही होते, अच्छा हुआ तुम हिंदू हो। वक्त गुज़रा, नजदीकियां ख़त्म हो चुकी थी लेकिन अब हमारे दरमियाँ फासले भी बढ़ने लगे थे। छोटी-छोटी बातें बिगड़ जाती और कई दिनों तक खिंच जाती। एक दिन उसके मोबाइल पर उसके "बौयेफ्रैंड" का एसएमएस देखकर हाथ-पैर ठन्डे पड़ गए, आंखों से आंसूं निकलने लगे, हालत ख़राब हुई तो हॉस्पिटल में दाखिल होना पड़ा। कुछ दिनों बाद मुझे पता चला की मुझे कोई दिमागी बीमारी है, कौन सी ये तो मुझे नही मालूम था। क्योंकि ये अफवाह उसी की उड़ाई थी, यकीन नही हो था मुझे। उसका दूसरा प्यार परवान चढ़ता जा रहा था और मेरी रातें सुबकते-सुबकते सुबह में बदल रही थी। हम दोनों को मिले एक साल से कुछ दिन ज़्यादा का वक्त हुआ और उसका जन्मदिन आ गया, तब उसने कहा कि "तुम्हारी जात हमारी जात से कम दर्जे की है, मेरी बड़ी बहिन की शादी में तुम्हारी वजह से अभी से अड़चने आनी शुरू हो गई हैं, और वैसे भी मेरे मम्मी-पापा नही चाहते कि मैं हमारी जात से नीचे की जात वाले शादी करूँ। काश तुम मेरी ये फिर ऊँची जात के होते तो शायद हमारा एक साथ रहना मुमकिन हो पाता। उस बार उसके जन्मदिन पर उसने मुझे सरप्राइज़ दे दिया था।

बुधवार, 8 जुलाई 2009

खुली आंखों का ख्वाब.....

वैसे तो मुझे ख्वाब देखे अरसा हो गया है, बंद आंखों के ख्वाब। पर जब आज तुम मेरे बगल में सोयी हुई, गहरी नींद में लम्बी-लम्बी साँसे ले रही हो तब यकीन होता है की मैं जाग रहा हूँ। पूरे कमरे में सिर्फ़ दो ही चीज़ें सुनाई दे रही हैं, एक पंखें की आवाज़ है और दूसरी तुम्हारी साँसे। थोडी देर पहले तुमने मुझसे कहा था की अगर तुम्हारा कोई फ़ोन आए सेल पर तो मैं उन्हें कह दूँ की तुम सो चुकी हो, मैंने ऐसा ही किया। हालांकि अब मुझे उम्मीद है कि फ़ोन नहीं आयेंगे, रात के दो बजने को जो हैं और बहुत सारे लोग थकी-मांदी हालत में नींद की आगोश में पनाह ले चुके हैं। ख्याल तो मुझे भी आ रहा है कि सो जाऊँ पर उससे पहले खिड़कियाँ खोल लूँ ताकि ताज़ी हवा आती जाती रहे कमरे में। पर ये ख्याल तब तक मुझ पर हावी नहीं होगा, जब तक ऑफिस की बातें मेरे दिमाग से नहीं चली जाती। तुम तो जानती हो आज क्या हुआ ऑफिस में, बहुत तकलीफ होती है जब अपने ही आपकी शिकायत ग़लत लहजे में करें। खैर, तुमने मुझे बहुत समझाया तभी मेरी आँखें सूखी हुई हैं। वरना, रोते हुए तो तुम मुझे देख ही चुकी हो। गुलज़ार साहब की "रावी के पार" में चौरस रात पढ़ रहा था, तभी सोचा कि आज की रात को कैद कर लूँ लफ्जों में। सोने से पहले तुम इसी किताब के बारे में कह रही थीं और तो और ऑफिस में भी गुलज़ार साहब के लिखे हुए लेटेस्ट गाने सुन रहे थे हम। मैं गुलज़ार तो नहीं हो सकता, पर उन्होंने जैसा राखी के लिए लिखा शायद लिख पाऊं। कोशिश करता हूँ.....

बारिश की सूखी रात में , बादलों की ओट में एक चाँद आसमान में धुंधला चमक रहा है,
और एक, इमारत की चौथी मंजिल में अपने बिस्तर पर बेडशीट ओढे, गहरी साँस ले रहा है।

पता नहीं तुम्हे कितनी पसंद आएगी ये लाइने...पसंद आएँगी भी या नहीं, वो भी नहीं मालूम।

लिखते-लिखते नोट पैड के दुसरे पन्ने पर पहुँच गया हूँ और मुझे वो ख्वाब याद आ गया, जिसे लिखने की कोशिश कर रहा हूँ। सच कहूँ तो आज तक इस ख्वाब का ज़िक्र किसी से नहीं किया, सिर्फ़ महसूस किया करता था कि मेरी मोहब्बत गहरी नींद में सिमटी हो और मैं अपनी मेज़ के सामने बैठकर अपना काम करते जाऊं, लिखने का-पढने का जो भी हो। ....और जैसे ही मुझे थकान लगने लगे, बस तुम्हारा चेहरा देख लूँ, जो कॉफी की मानिंद कम कर जाए। हलाँकि अभी तुम्हारे ही बैड पर बैठा हुआ हूँ। आज ही तो तुम्हें अपनी मोहब्बत से वाकिफ करा पाया हूँ, पर तुम्हें अब भी मेरी बातें मज़ाक ही लग रही होंगी। हो सकता है मेरे कहने का सलीका रेशम की तरह नरम रहा होगा, पर क्या कर सकता हूँ। तुम तो जानती हो न मुझे, "पागल" ! इसी नाम से खींचती हो मुझे। अरे! इस महीने तो तुम्हारा जन्मदिन है, शनिवार को। शुक्र है! मेरी छुट्टी है उस दिन। पता नहीं क्या करूँगा उस दिन? पर जो भी करूँगा तुम्हें पसंद आ जाए। तुम्हें तो वो दिन याद होगा, जब तुम अपनी दीदी की शादी में बंगलुरु नहीं जा पायी थीं। उस दिन तुम्हारा मन बहलाने के लिए मैं तुम्हें दीपदान कराने नर्मदा नदी ले गया था और नाव में घूमते वक्त तुमने अपनी मम्मी से फ़ोन पर इस बात का ज़िक्र किया था। उस दिन तुम्हारे थैंक्स सुन सुन कर मेरे कान हड़ताल पर चले गए थे। बहुत खुश हो गई थी तुम, ऑफिस में तुमने मिठाई भी बांटी थी। मेरा बस चले तो तुम्हारा हर दिन स्पेशल बना दूँ, पर क्या करूँ ? इवेंट मेनेजर नहीं हूँ न! रेडियो जौकी हूँ, हँसी आती है मुझे...ख़ुद पर। जब तुम्हारे काजल के अलग अलग रंगों को देखकर पूरा दो घंटे का शो उस पर बना दिया था, सवाल क्या था शो में? हाँ, लड़कियां आंखों के नीचे काजल क्यों लगाती हैं? और शायरी भी कुछ काजाल पर ही थी। आज तो तुमने पर्पल कलर का काजल लगाया था, वो दिख रहा है तुम्हारी पलकों के ऊपर और आंखों के नीचे। वैसे पर्पल कलर की डिजाईन और बॉर्डर भी है तुम्हारी बैड शीट पर, जिसे तुम ओढ़कर सोयी हो और गहरी नींद में लम्बी-लम्बी सांसें ले रही हो....बहुत खूबसूरत लग रही हो।