रविवार, 28 फ़रवरी 2010

चाँद की शरारत

चाय पीने के लिये दफ्तर से बाहर निकला तो देखा,
कि आज चाँद पूरा है फ़लक पर,
और झाँक रहा है ज़मीन की तरफ,
कुछ आगे बढ़ा तो पता चला कि,
तुम्हारी छत के बहुत नज़दीक है चाँद,
और ताक रहा है कि कब तुम ऊपर आओ,
चाँद भी बेहद शरारती हो गया है.

गुरुवार, 25 फ़रवरी 2010

शहीदों का सम्मान

ग्वालियर में सचिन का दोहरा शतक एक वर्ल्ड रिकॉर्ड है. इसमें कोई शक नहीं कि सचिन ने एक महान पारी खेली है. सचिन के इस दोहरे शतक का जश्न भारतीय अगले दो दिन तक ज़रूर मनाएंगे. हालाँकि सचिन ने जिस दिन इतिहास रचा उस दिन भारतीय रेल मंत्री ममता बेनर्जी भी अपने रेल बजट की पारी खेल रही थीं, और उनके इस रेल बजट का असर भारतीयों पर अगले एक साल तक ज़रूर रहेगा. वैसे आज के अखबारों और न्यूज़ चैनल्स में क्रिकेट और रेल बजट जैसी दो चीज़ें प्रमुखता से दिखाई जा रही हैं लेकिन कल के ही दिन श्रीनगर में एक आतंकी हमले के दौरान शहीद हुए सेना के कैप्टेन देविंदर सिंह जास,नायक सेल्वा कुमार और पैराट्रूपर इम्तियाज़ अहमद थोकर के बारे में बहुत कम अखबारों और न्यूज़ चैनल्स ने कवरेज दिया. बहुत दुःख की बात है कि हमारे देश के असली नायकों के लिए ज़्यादातर लोगों के पास वक़्त नहीं है. अब चाहे वो मीडिया ही क्यों न हो. शायद यही कारण भी है कि भविष्य बनाने के मामले में हमारे देश की युवा पीढ़ी की रूचि राजनीति, मनोरंजन और खेल के क्षेत्र में ज्यादा है जबकि सेना में जाने के लिए उनमें उत्साह काफी कम है. मेरा उद्देश्य सचिन के खेल की अहमियत कम करना नहीं है, मैं चाहता हूँ कि लोग उनका भी सम्मान करें जिनकी वजह से भारत के करोड़ों लोग बिना किसी डर के अपने-अपने टीवी सेट्स पर सचिन की सेंचुरी और शाहरुख़ की एक्टिंग देखते हैं. उन शहीदों को शत-शत नमन.

रविवार, 14 फ़रवरी 2010

अकेलापन

दिन भर के बाद जब शाम को घर जाता हूँ,
तो सबसे पहले घर के ताले से रु-बा-रु होता हूँ,
और जब दाखिल होता हूँ अन्दर,
तब घर से सामना होता है मेरा,
सुबह से मेरे जाने के बाद,
कोई होता नहीं है उससे बतियाने को,
इसलिए शाम को मुझे देखते ही,
उसका मुँह सूज जाता है,
सारी नाराज़गी मुझ पर ज़ाहिर करता है,
एक बात बताऊँ,
उस घर के दांत नहीं हैं,
फिर भी वो मुझे काटने को दौड़ता है.

शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2010

तवायफ़

उसके यहाँ वो सब जाते हैं
जिन्हें जाने का मौका मिलता है,
जो दिन के उजाले में जाने से कतराते हैं
वो रात में गुम होकर जाते हैं,
जो खुले चेहरों में जाने से डरते हैं
वो चेहरा ढंककर जाते हैं,
जिन्हें अपनी सरहद पर दूसरे की परछाईं बर्दाश्त नहीं
वो वहां अगल-बगल बैठते हैं,
जिन्हें एक थाली में खाने से परहेज़ है
वो वहां एक पानदान से पान नौश फरमाते हैं,
जो एक बर्तन का पानी नहीं पीते
वो वहां एक ही सुराही से जाम पलटते हैं,
जो उसके दर से बाहर निकलते ही बंटकर
हिन्दू-मुसलमान, अमीर-गरीब हो जाते हैं,
उसके यहाँ सब एक हो जाते हैं,
धरम-अधरम, ऊँच-नीच, बड़ा-छोटा
उसके यहाँ ये कुछ नहीं होता,
उसके कोठे पे,
सब उसके मुरीद होते हैं....

कॉफ़ी टेबल

वो कॉफ़ी हाउस की टेबल याद है तुम्हें?
बारह नंबर वाली,
जहाँ अक्सर हम बैठा करते थे,
कॉफ़ी पीते थे कभी, नाश्ता भी करते थे,
लड़ते भी थे कई बार वहां,
और कई बार सुलह भी करते थे,
अभी कुछ दिनों पहले मैं वहां गया था,
वो टेबल मुझे देख कर बोली,
अमां! आज अकेले ही आये हो?
वो नहीं आयी???

कॉफ़ी

तुम जब जा रहीं थीं
तब कॉफ़ी रो रही थी
प्यालों से बाहर गिरकर
पहली बार ऐसा हुआ
तुम्हारे जाते वक़्त,
ये संयोग नहीं
वियोग है,
पर कुछ दिन का...

बुधवार, 10 फ़रवरी 2010

पता नहीं क्या है?

चेहरा क्या है?
धोखा है,
और इस धोखे पे,
पूरी दुनिया फ़िदा है.

सबने ओढ़ रखे हैं,
चेहरों पर चेहरे,
असली चेहरा न जाने,
कहाँ छुपा है?

हर चेहरे पर,
दो नज़र गड़ी हैं,
इन नज़रों में भी,
गज़ब का धोखा है.

हर नज़र धोखे में हैं,
और हर चेहरा धोखा है.

सोमवार, 8 फ़रवरी 2010

परी है या तवायफ़

कुछ देर के भूल जाओ खुदको,
आखिरी शब्द तक बस "मैं" हो जाओ,

कल दोपहर हुस्न की बाँहों में था,
देर तक, उलझा हुआ,
बहुत सारी ख़ामोशी बाँटी थी हमने,
एकदम वैसी जैसी किसी बवंडर के पहले होती है,
पहले कभी उसी हुस्न को मोहब्बत कहते थे,
पर जिस वफ़ा ने कईयों के तख्ता-पलट कर दिए थे,
उसी वफ़ा ने मोहब्बत को भी,
हुस्न में बदल दिया,
अब तक जो एकदम साफ़ थी नीले आसमां की तरह,
जिसे आजतक कोई बादल न ढँक पाया था,
और न ही बदल पाया था,
पर कल रात, उस हुस्न को किसी और की बाँहों में देखा,
और यही सोचता रह गया,
परी है या तवायफ़...

मंगलवार, 2 फ़रवरी 2010

लाइफ

नया-नया प्यार होता है, तो जिंदगी की बिंदी, नुक्ता और बड़ी इ हटकर,
लाइफ बन जाती है वो,
और इस लाइफ में फूलों के वो रंग भी दिखने लगते हैं,
जो किसी बगिया में होते ही नहीं हैं,
बिस्तर के आस-पास अखबारों, कागजों, कपड़ों, कटोरी-चम्मचों का ढेर लग जाता है,
चादरों, कम्बलों पर सिलवटें पड़ जाती हैं और तकिये बालों के छोटे टुकड़ों से पट जाते हैं,
पूरी रात एक-दूसरे को सुलाते-सुलाते बीत जाती है और सुबह सोने का मन करता है,
एक साथ घूमना, खाना-पीना, चौपाटी में कॉफ़ी की चुस्कियां लेना कितना अच्छा लगता है,
ज़मीने हकीक़त से दूर, आसमां में चाँद के पास तारों को नया नाम देना...
बहुत कुछ होता है,
वैसे प्रैक्टिकल लोग भी ऐसा ही करते हैं,
मिलते वक़्त कभी अलग होने के बारे में नहीं सोचते,
पर प्रैक्टिकली यही होता है,
कि पानी नहीं सीचने से गुलाब का पौधा भी मर जाता है,
और कोई उबली हुई चायपत्ती उसे हरा-भरा नहीं कर सकती,
चाहें वो कितनी भी ब्रांडेड क्यों न हो...

घर

मेरे घर के सामने का मकान,
वैसे तो टायर का गोदाम है,
उसकी अंदरूनी दीवारें रबर की कालिख से,
रंग गयी हैं,
मकान के अन्दर बस नए टायरों की महक है,
जो उसका दम घोटती हैं,
वो मकान किसी से बात तक नहीं करता,
पर आज सुबह,
कई सालों से उदास उस मकान की आवाज़ सुनकर,
मैं घर से बाहर निकला,
वो हँस-हँस कर बातें कर रहा था,
फड़की से,
जो वहां घोंसला बनाकर, अंडे भी रख चुकी थी अपने,
उसकी ख़ुशी से मुझे अंदाजा हो गया था,
कि वो मकान, अब घर बन चुका है...

गौरैया

शहर में आज-कल कम ही देखने को मिलती है वो,
पर जाने मेरे कमरे में कहाँ से आ गयी,
आते ही बुल्शेल्फ़ के सबसे ऊपरवाले हिस्से में चढ़ गयी,
कुछ सोचते-सोचते उसने कोशिश की वहां सुकून से बैठने की,
बहुत देर तक जद्दो-जेहद में लगी रही,
लेकिन वहां की किताबें उसे जगह नहीं दे रही थीं,
पंख फैलाने को,
कुछ देर कोशिश करने के बाद उड़ गयी,
और जाकर बैठ गयी बाहर कपड़े सुखाने की तार पर,
उसकी हिलती-डुलती परछाईं मेरी डायरी में पड़ रही थी,
कुछ सोचकर दुबारा अन्दर आयी और फिर चढ़ गयी बुकशेल्फ पर,
इस बार बुकशेल्फ का नीचे का हिस्सा भी छाना उसने,
पर मेरी माँ के कमरे में आती ही उड़ गयी फुर्र से से,
माँ कह रहीं थीं,
अगर ये कमरा हमेशा खुला रहे तो वो यहाँ घोंसला ज़रूर बना लेगी.

धूप

दिन की धूप कभी इतनी उबाऊ नहीं थी,
जितनी आज लग रही है,
धूप भी चुपचाप मेरे कमरे तक आयी थी सुबह,
और धीरे-धीरे वापिस जा रही थी,
कभी-कभार आपस में हम खूब बतियाते थे,
परिंदों के किस्से, पहाड़ों के जुमले और नदियों की कहानी,
लेकिन आज उसके पास भी कहने के लिये कुछ नहीं है,
शायद उसका भी कोई अपना उससे बिछड़ गया है,
रूठ गया है,
धूप भी  तकलीफ में हैं,
इसलिए तो आज चुभ रही है...

सोमवार, 1 फ़रवरी 2010

लौटा दो सब कुछ !

लगभग सबकुछ लौटा चुके हो तुम,
पर थोड़ा-थोड़ा कुछ बाकी है,
वो थोड़ा बहुत कुछ है मेरे लिये,
पर मैंने कभी कहा नहीं,
आज कह रहा हूँ इसलिए गुस्ताखी माफ़,

क्या लौटा सकते हो वो रात,
जब मैं अपने दोस्त की याद में सिमटा रहा तुम्हारे कंधों पर,

क्या दुबारा मिल सकते हैं वो आंसू,
जो साथ रहते ख़ुशी और गम में बहे हैं,

क्या मिल सकती हैं वो पानी की बूंदें,
जो तुमने मेरे बदन से पोछीं हैं,

क्या पा सकता हूँ वो रेशम के तार,
जो रात भर जागकर हमने साथ बुने हैं,

जानता हूँ मुमकिन नहीं,
इसलिए तो कह रहा हूँ,
शायद तुम समझ जाओ,
कि जो बीत गया उस पर अपने कोई जोर नहीं...

चाँद और तुम

आज शाम टीवी पर देखा कि पूरनमासी का चाँद,
पिछली कई पूरनमासी की रातों के मुकाबले,
काफी बड़ा और खूबसूरत दिख रहा है,
देर रात को मैं भी चढ़ा छत पर कि देखूं तो,
आखिर क्या माजरा है?
बिलकुल मेरे सिर के ऊपर था वो,
जब नज़र उठाकर मैंने देखा तो,
तुम्हारा गुलाबी चेहरा नज़र आया उसमें,
ठीक वैसा जो तुम "उसके" साथ घूमने जाने के लिए,
लिये बैठी थीं,
उस रोज़ तुम्ही ने बताया था मुझे,
कि  तुम्हें जाना है कहीं "उसके" साथ,
धीमा हो गया था मैं, मंद पड़ गयी थी धड़कन,
काँप गया था! जैसा अभी काँप रहा हूँ सर्द रात में...

13 जनवरी

उस रात जैसे हैवान बैठे थे आँखों में,
जिनके बोझ से ज़मीर की पलकें बंद हो गयीं थी,
इंसानी जिस्म में उतारकर एक-दूसरे का खून पीने को बेताब थे वो,
एक मौका भी मिला, जिस छोड़ना मुमकिन न था दोनों के लिए,
गहरे दांत उतार दिए थे, रूह तक हैवानों ने,
के जिसके निशाँ अब तक झांकते हैं,
दोनों जिस्म की दरारों से,
किसी धागे सा गुच्छा बनकर, उलझ गए थे वो,
चूस लिया था मोहब्बत के हर लम्हें का कतरा,
और जब सुलझे तो, बेमानी सा कर दिया था,
वो रिश्ता,
जिसे मैंने सीने से लगाकर और तुमने छाती में छुपाकर,
पाल-पोसकर बड़ा किया था, अपने बच्चे की तरह,
वो बच्चा,
रोज़ अपनी माँ के बारे में पूछता है,
और मैं उसे बहला कर सुला देता हूँ...