शनिवार, 26 दिसंबर 2009

तुम्हारे नाम

तुम, 

"कभी-कभी आपको वो भी करना पड़ता है, जो आपने सोचा न हो." अपनी बात करूँ तो ऐसा ही लग रहा है अभी कि जो कुछ अब मैं लिखने वाला हूँ, कभी सोचा नहीं था कि इस तरह से भी लिखना पड़ सकता है. जाने क्यों मुझे ऐसा लगता है कि अपनी परेशानियाँ यहाँ लिखते वक़्त कुछ हल्का सा लगने लगता है. ये  गलतफहमी भी हो सकती है लेकिन लगता तो कुछ ऐसा ही है. हाड़-मांस के ढाँचे में रहते हुए ये भी लगने लगा है कि अपनी परेशानी को शाब्दिक रूप देकर, शायद उसे आसानी से सुलझाया जा सकता है. अब ये तो आगे ही पता चलेगा कि ये दुबारा उलझने के सुलझेगी या फिर और उलझती जाएगी.
मैंने ऐसा कहीं सुना था कि बातचीत से दो देशों के बीच के झगड़े, मसले और मुद्दे सुलझ जाते हैं. पर मेरा मसला बातचीत से कभी सुलझता ही नहीं है. बातचीत, वो क्या होती है...जब भी होती है सिर्फ बहस ही होती है. लेकिन इतना ज़रूर है कि शुरुआत बातचीत से ही होती है. मसला भी कोई बड़ा मसला नहीं है, लेकिन इस मसले की अहमियत बहुत है. मसला यही है कि " जब भी तुम मुझसे दूर जाते हो, अपने ज़हन से मुझे निकाल कर कहीं बाहर फेंक जाते हो." आज तक तो मुझे ऐसा नहीं लगा कि मैं हमारे रिश्ते को ढो रहा हूँ पर जाने क्यों मुझसे दूर जाने के बाद तुम माथे का पसीना पोछते हुए नज़र आते हो. छोटे शहर के लोगों में attitude नहीं होता, वो Emotional fool होते हैं. बेहद प्यार करने और बेहिसाब नफरत करने की quality सिर्फ छोटे शहर के लोगों में ही होती है और इसी वजह से वो अपने रिश्तों में या तो बहुत सफल होते हैं या फिर बहुत असफल. रिश्तों का ताना-बाना बुनते वक़्त वो ये भूल जाते हैं कि वो "बुनकर" या "जुलाहा" नहीं हैं, जो कहीं भूल-चूक हो जाने पर बिना गठान बांधे दुबारा रिश्तों को बुन सकते हैं. कहीं गठान न बांधनी पड़े इसके लिए भी मैं हमेशा तैयार रहता था, Adjustment  क्या होता है ये उनसे पूछो जो थोड़े से adjustment में अपनी पूरी जिंदगी साथ जीने के लिए तैयार रहते हैं पर उन्हें ये उनके नसीब में Adjustment जैसी कोई चीज़ नहीं होती. अगर कोई कहता है कि Adjustment जैसी कोई भी चीज़ रिश्तों में नहीं होती तो शायद उन्हें ये नहीं मालूम है कि जब भी दुनिया में दो अलग-अलग चीज़ें मिलती हैं तो उनमें Adjustment होता है. भौतिकी के समायोजन का सिद्धांत मानव जीवन के रिश्तों पर भी लागू होता है. पर इसका एक लेवल होता है, ये सिद्धांत इतना भी न लागू होने लगे कि Relation  किसी Technical machine जैसा लगने लगे. कभी गौर किया है तुमने, जब भी हम करीब होते हैं तो Communication का एक तार सा जुड़ा होता है. जो दूर जाते ही टूट जाता है और दूर जाने पर सबसे ज्यादा जिस चीज़ का ज़रूरत होती है वो कम हो जाये तो चलता है लेकिन बिलकुल ख़त्म हो जाये तो तकलीफ होती है. दिन में तुम अपने दोस्तों के साथ हो, शाम को परिवार  के साथ, रात में फ़ोन पर या फिर थक जाने के बाद नींद की आगोश में. फिर मैं कहाँ हूँ? ठीक है एक-दो दिन चलाया जा सकता है. फिर जब भी बात हो तो ऐसी क्यों कि जैसे मैं तुम्हारे लिए अनजान हूँ? प्यार नाम का कुछ तो है हमारे बीच, पर वो तो नदारद हो जाते हैं तुम्हारे जाते ही. एक सच और है जो तुम्हे भी मालूम है कि तुम बहुत ज़िद्दी हो. अब चाहें वो ज़िद सही बात को न मानने की हो या फिर गलत बात मनवाने की. मुझे उम्मीद है कि तुम्हे मेरी बातें समझ आ गयी होंगी.


मैं 

सोमवार, 14 दिसंबर 2009

ईमेल

सुबह -सुबह एक ईमेल की दस्तक पर, जब इनबॉक्स खोला,
तो देखा, बहुत सारे स्पाम भी आये हैं,
सब्जेक्ट से आकर्षक थे सारे,
जो पहले भी थे आये,
हेडर देखा फुटर देखा,
पूरा मेल पढ़ कर देखा,
तो पता चला,
किसी के बैंक अकाउंट में, बहुत सारा पैसा था,
जिसे हांसिल करने के लिए मेरा सहारा चाहिए,
रकम तो इतनी थी कि जिसे आज तक मैंने सुना न था,
अचानक से याद आया कि,
अखबार में कुछ दिनों पहले,
ऐसे ही किसी ईमेल फ्रौड की खबर आई थी,
फिर भी लगा कि हर बार फ्रौड थोड़े ही होता है,
स्टार का टैग लगा कर अकाउंट साईन आउट कर दिया,
जब भी साईन इन करता,
तो बस उस मेल पर ही नज़र जाती,
दो हफ्ते बीत गए,
सोचा उस मेल का रेप्लाए किया जाये,
लेकिन उस दिन अखबार में फिर एक खबर आ गयी,
"ईमेल के ज़रिये फ्रौड करने वाला गिरफ्तार"
फ्रौड है शायद, फ्रौड ही होगा,
इस तरह इन्टरनेट पर अगर अमीर बनने की तरकीब होती,
तो भिखारी कटोरे की जगह, लैपटॉप लेकर घूमते.