शनिवार, 25 जुलाई 2009

ये शायद मैं हूँ...

तेरे सवालों पर मेरी चुप्पी, तुमसे बहुत कुछ कहती है,
पर आज तक क्या कोई खामोशी को लफ्जों में समझ पाया है?

तेरे गुस्से पर मेरी आंखों की नमी, सावन का बादल बनकर बरसती है,
पर आज तक कौन सा बादल, धरती की तपिश को बुझा पाया है?

तेरे तकरार पर मेरे दिल की बेचैनी, ज्वर-भाटा सी घटती-बढती है,
पर आज तक कौन है जो, इससे उबर पाया है?

तेरे नफरत करने के अंदाज़ पर, एक शेर जुबां पर आया है,
पर ये शायद मैं हूँ, जो चुप रहकर ही इसे बयां कर पाया है।

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