सोमवार, 21 सितंबर 2009

ऊब

आजकल लिखने का मन नहीं करता, और अगर मन होता भी है तो लिखने में वक़्त नहीं दे पाता. पूरी कोशिश कर रहा हूँ कि कुछ अच्छा लिखूं. पर अच्छा क्या होता है? क्या अच्छा लिखने से कुछ अच्छा हो सकता है? मतलब अगर मैं कुछ लिख रहा हूँ और आप उसे पढ़ रहे हैं तो क्या उस लेख पर टिप्पणी करने के बाद आप फुर्सत हो जाते हैं अपने कर्तव्य से ? खैर मेरी छोड़िये, मैं तो जो लिखता हूँ बकवास ही लिखता हूँ पर आप जो अखबार पढ़ते हैं, कुछ अच्छे न्यूज़ चैनल देखते हैं. क्या उनमें भी सबकुछ बकवास ही होता है? मेरे लिए कुछ ख़बरों को छोड़कर बाकी सबकुछ ठीक-ठाक होता है अखबार और न्यूज़ चैनल में. नेता अपना काम कर रहे हैं (मतलब वो खबर बनने की पूरी कोशिश करते हैं.) और पत्रकार अपना काम करते हैं (कुछ खबर लाते हैं, कुछ खबर दबा जाते हैं , कुछ खबर बनाते हैं और  कुछ खबर बनने ही नहीं देते.). बाकी बची हमारी आम जनता "the mango people", इनका काम सबसे ज्यादा कठिन होता है. पांच साल में एक बार नेता चुन लिया और अपने काम से लग गए. बहुत काम होता है आम जनता के पास, जैसे सुबह सोकर उठाना, अखबार खरीद कर पढना और चाय की चुस्कियां लेते हुए कहना...ये नेता लोग एक दिन देश को खा जायेंगे और ये अखबार वाले कुछ भी छापते रहते हैं "लड़के ने कुतिया का बलात्कार किया". कुछ नहीं हो सकता इस देश का.  थोडी देर में  नौकरी पर जाने का वक़्त हो जायेगा, तब नहा-धोकर, नाश्ता करके, टिफिन लेकर ये कहते हुए निकलेंगे...Oh God! देर हो रही है. जल्दी से अपना two wheeler स्टार्ट करके, बच्चों को टा टा कहेंगे और अगर बीवी होगी तो एक smile देकर फटाक से निकल जायेंगे. (ये वाली कंडिशन्स अलग हो सकती हैं, नयी बीवी और पुरानी बीवी को response करने में कुछ फर्क हो सकता है.) खैर अपनी गड्डी लेकर जब mango people आगे बढ़ते हैं तो बंद रेलवे फाटक को खुद झुककर और गाड़ी को तिरछा करके निकाल लेते हैं. थोड़ी आगे के चौराहे पर एक यातायात पुलिसकर्मी गाड़ी रोक कर ड्राइविंग लाईसेन्स की मांग करता है तब मालूम पड़ता है कि वो जल्दी-जल्दी में घर पर ही छूट गया. फिर क्या है, एक पचास का नोट देकर चालान से मुक्ति पा लेते हैं. अरे! पान थूकने का सीन तो रह ही गया, पचाक! ये लो ये भी पूरा हो गया. दफ्तर पहुंचकर कुछ पुराने काम पेंडिंग पड़े हुए हैं जिनका खर्चा बड़े साब के पास पहुँच गया है, तो लगे हाथ काम पूरा करके अपना हिस्सा लेकर शाम की सब्जी-भाजी का इंतजाम कर लिया. शाम को घर लौटते वक़्त, रास्ते में लघुशंका लग आई, बस गाड़ी किनारे लगाकर कहीं भी खड़े हो गए. न तो खुद को रोक सकते हैं और न ही कोई रोकने-टोकने वाला है. थोड़ी देर में घर पहुंचकर बीवी को टेलिविज़न पर प्राइम टाइम शो के साथ चिपके हुए देखते हैं. जब खाना खाने का मन किया तब बीवी डिनर टेबल सजाकर खाना खिला कर, बच्चों को सुलाकर कहेगी... सुनोजी! शक्कर-दाल-रसोई गैस सब महंगे हो गए हैं, इस बार घर के बजट के लिए थोड़े एक्स्ट्रा पैसे चाहिए होंगे. थोड़ी देर यहाँ-वहां कि बातें करते हुए रूम का लाइट ऑफ़ हो जायेगा. ये एक कॉमन लाइफ है, कॉमन मैन "द मैंगो पीपल" की. जनाब, जब खुद इंसान अपने घर की ज़िम्मेदारी सीधे तरीके से नहीं निभा पाता तो वो दूसरो से क्यों उम्मीद करता है कि वो देश की ज़िम्मेदारी सीधे ढंग से निभाएं? जब घर चलाने के लिए काला-पीला करना पड़ता है तो देश चलाने के लिए काला-पीला करने वालों से परहेज़ क्यों? एक फिल्म आयी थी " अ वेडनेसडे" जिसमें नसीरुद्दीन साहब का एक संवाद था, "आम आदमी conditions से adjust कर लेते हैं, उससे लड़ने की कोशिश नहीं करते, मुझसे बर्दाश्त नहीं हुआ तो मैं निकल गया लड़ने के लिए."

सच बताऊँ, तो मैं भी ऊब चुका हूँ adjust करते हुए और दूसरों को adjustment करते हुए देखकर और ये ऊब बहुत जल्दी ख़त्म होने वाली है.

2 टिप्‍पणियां:

shreya ने कहा…

listen m vry angry wid u surya..so wil nt read dis blog of urs..jsi din saath mein baithenge us din padhungi...

रामकृष्ण गौतम ने कहा…

ज़िक्र उस परीवश का और फिर बयाँ अपना
बन गया रक़ीब आख़िर था जो राज़दाँ अपना