बुधवार, 8 जुलाई 2009

खुली आंखों का ख्वाब.....

वैसे तो मुझे ख्वाब देखे अरसा हो गया है, बंद आंखों के ख्वाब। पर जब आज तुम मेरे बगल में सोयी हुई, गहरी नींद में लम्बी-लम्बी साँसे ले रही हो तब यकीन होता है की मैं जाग रहा हूँ। पूरे कमरे में सिर्फ़ दो ही चीज़ें सुनाई दे रही हैं, एक पंखें की आवाज़ है और दूसरी तुम्हारी साँसे। थोडी देर पहले तुमने मुझसे कहा था की अगर तुम्हारा कोई फ़ोन आए सेल पर तो मैं उन्हें कह दूँ की तुम सो चुकी हो, मैंने ऐसा ही किया। हालांकि अब मुझे उम्मीद है कि फ़ोन नहीं आयेंगे, रात के दो बजने को जो हैं और बहुत सारे लोग थकी-मांदी हालत में नींद की आगोश में पनाह ले चुके हैं। ख्याल तो मुझे भी आ रहा है कि सो जाऊँ पर उससे पहले खिड़कियाँ खोल लूँ ताकि ताज़ी हवा आती जाती रहे कमरे में। पर ये ख्याल तब तक मुझ पर हावी नहीं होगा, जब तक ऑफिस की बातें मेरे दिमाग से नहीं चली जाती। तुम तो जानती हो आज क्या हुआ ऑफिस में, बहुत तकलीफ होती है जब अपने ही आपकी शिकायत ग़लत लहजे में करें। खैर, तुमने मुझे बहुत समझाया तभी मेरी आँखें सूखी हुई हैं। वरना, रोते हुए तो तुम मुझे देख ही चुकी हो। गुलज़ार साहब की "रावी के पार" में चौरस रात पढ़ रहा था, तभी सोचा कि आज की रात को कैद कर लूँ लफ्जों में। सोने से पहले तुम इसी किताब के बारे में कह रही थीं और तो और ऑफिस में भी गुलज़ार साहब के लिखे हुए लेटेस्ट गाने सुन रहे थे हम। मैं गुलज़ार तो नहीं हो सकता, पर उन्होंने जैसा राखी के लिए लिखा शायद लिख पाऊं। कोशिश करता हूँ.....

बारिश की सूखी रात में , बादलों की ओट में एक चाँद आसमान में धुंधला चमक रहा है,
और एक, इमारत की चौथी मंजिल में अपने बिस्तर पर बेडशीट ओढे, गहरी साँस ले रहा है।

पता नहीं तुम्हे कितनी पसंद आएगी ये लाइने...पसंद आएँगी भी या नहीं, वो भी नहीं मालूम।

लिखते-लिखते नोट पैड के दुसरे पन्ने पर पहुँच गया हूँ और मुझे वो ख्वाब याद आ गया, जिसे लिखने की कोशिश कर रहा हूँ। सच कहूँ तो आज तक इस ख्वाब का ज़िक्र किसी से नहीं किया, सिर्फ़ महसूस किया करता था कि मेरी मोहब्बत गहरी नींद में सिमटी हो और मैं अपनी मेज़ के सामने बैठकर अपना काम करते जाऊं, लिखने का-पढने का जो भी हो। ....और जैसे ही मुझे थकान लगने लगे, बस तुम्हारा चेहरा देख लूँ, जो कॉफी की मानिंद कम कर जाए। हलाँकि अभी तुम्हारे ही बैड पर बैठा हुआ हूँ। आज ही तो तुम्हें अपनी मोहब्बत से वाकिफ करा पाया हूँ, पर तुम्हें अब भी मेरी बातें मज़ाक ही लग रही होंगी। हो सकता है मेरे कहने का सलीका रेशम की तरह नरम रहा होगा, पर क्या कर सकता हूँ। तुम तो जानती हो न मुझे, "पागल" ! इसी नाम से खींचती हो मुझे। अरे! इस महीने तो तुम्हारा जन्मदिन है, शनिवार को। शुक्र है! मेरी छुट्टी है उस दिन। पता नहीं क्या करूँगा उस दिन? पर जो भी करूँगा तुम्हें पसंद आ जाए। तुम्हें तो वो दिन याद होगा, जब तुम अपनी दीदी की शादी में बंगलुरु नहीं जा पायी थीं। उस दिन तुम्हारा मन बहलाने के लिए मैं तुम्हें दीपदान कराने नर्मदा नदी ले गया था और नाव में घूमते वक्त तुमने अपनी मम्मी से फ़ोन पर इस बात का ज़िक्र किया था। उस दिन तुम्हारे थैंक्स सुन सुन कर मेरे कान हड़ताल पर चले गए थे। बहुत खुश हो गई थी तुम, ऑफिस में तुमने मिठाई भी बांटी थी। मेरा बस चले तो तुम्हारा हर दिन स्पेशल बना दूँ, पर क्या करूँ ? इवेंट मेनेजर नहीं हूँ न! रेडियो जौकी हूँ, हँसी आती है मुझे...ख़ुद पर। जब तुम्हारे काजल के अलग अलग रंगों को देखकर पूरा दो घंटे का शो उस पर बना दिया था, सवाल क्या था शो में? हाँ, लड़कियां आंखों के नीचे काजल क्यों लगाती हैं? और शायरी भी कुछ काजाल पर ही थी। आज तो तुमने पर्पल कलर का काजल लगाया था, वो दिख रहा है तुम्हारी पलकों के ऊपर और आंखों के नीचे। वैसे पर्पल कलर की डिजाईन और बॉर्डर भी है तुम्हारी बैड शीट पर, जिसे तुम ओढ़कर सोयी हो और गहरी नींद में लम्बी-लम्बी सांसें ले रही हो....बहुत खूबसूरत लग रही हो।

4 टिप्‍पणियां:

Udan Tashtari ने कहा…

प्रवाहमय उम्दा लेखन!!

ओम आर्य ने कहा…

डुबते चले गये रात के आगोश मे .........धारा प्रवाह.........सौन्दर्य से परीपुर्ण अतिसुन्दर

tamanna ने कहा…

khwaab to khwaab hote hain janaab..... khuli aankhon k ho ya band aankhon k...... bas antar itna hota hai..... kabhi khwaab k rangmanch ki abhinetri koi aur hoti hai aur kabhi koi aur......

Ram Krishna Gautam ने कहा…

Behad Sanzeeda. Simply Mind Blowing Bro. lagta hai ye likhte waqt aap kafi "SHAYRANA" mood me the?