सोमवार, 1 फ़रवरी 2010

13 जनवरी

उस रात जैसे हैवान बैठे थे आँखों में,
जिनके बोझ से ज़मीर की पलकें बंद हो गयीं थी,
इंसानी जिस्म में उतारकर एक-दूसरे का खून पीने को बेताब थे वो,
एक मौका भी मिला, जिस छोड़ना मुमकिन न था दोनों के लिए,
गहरे दांत उतार दिए थे, रूह तक हैवानों ने,
के जिसके निशाँ अब तक झांकते हैं,
दोनों जिस्म की दरारों से,
किसी धागे सा गुच्छा बनकर, उलझ गए थे वो,
चूस लिया था मोहब्बत के हर लम्हें का कतरा,
और जब सुलझे तो, बेमानी सा कर दिया था,
वो रिश्ता,
जिसे मैंने सीने से लगाकर और तुमने छाती में छुपाकर,
पाल-पोसकर बड़ा किया था, अपने बच्चे की तरह,
वो बच्चा,
रोज़ अपनी माँ के बारे में पूछता है,
और मैं उसे बहला कर सुला देता हूँ...

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